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________________ २२ वो वर्ष १८३ ५१ ववाणिया बंदर, माघ वदो ७, १९४५ नौरागी पुरुषोको नमस्कार उदयमे आये हुए कर्मोंको भोगते हुए नये कर्म न बँधे इसके लिये आत्माको सचेत रखना यह सत्पुरुषोंका महान बोध है। आत्माभिलाषी, यदि वहाँ आपको समय मिलता हो तो जिनभक्तिमे विशेष विशेष उत्साहकी वृद्धि करते रहियेगा, और एक घड़ो भी सत्संग, या सत्कथाका संशोधन करते रहियेगा । (किसी समय) शुभाशुभ कर्मके उदय के समय हर्ष-शोकमे न पडते हुए भोगनेसे ही छुटकारा है, और यह वस्तु मेरी नहीं है ऐसा मानकर समभावकी श्रेणिको बढाते रहियेगा। ।। विशेष लिखनेसे अब रुक जाता हूँ। . " वि० रायचदके सत्पुरुषोको नमस्कारसहित प्रणाम विदित हो । _५२ ववाणिया बदर, माघ वदी १०, सोम, १९४५ , , नोरागो पुरुषोको नमस्कार । आत्महिताभिलाषी आज्ञाकारी, आपका आत्मविचारपूर्ण पत्र कल प्रभातमे मिला । निग्रंथ भगवान प्रणीत पवित्र धर्मके लिये जो जो उपमाएँ दें वे सब न्यून ही हैं। आत्मा अनत काल भटका, यह मात्र उसके निरुपम धर्मके अभावसे । जिसके एक रोममे किंचित् भी अज्ञान, मोह या असमाधि नही रही उस सत्पुरुषके वचन और बोधके लिये कुछ भी नही कहते हुए, उसीके वचनमे प्रशस्तभावसे पुन पुन प्रसक्त होना, यह भी अपना सर्वोत्तम श्रेय है। __ कैसी इसको शैली । जहाँ आत्माके विकारमय होनेका अनताश भी नही रहा है। शुद्ध, स्फटिक, फेन और चंद्रसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यानकी श्रेणिसे प्रवाहरूपसे निकलते हुए उस निग्रंथके पवित्र वचनोकी मुझे और आपको त्रिकाल श्रद्धा रहे । यही परमात्माके योगबलके आगे प्रयाचना । दयालभाईने जो बताया उसके अनुसार आपने लिखा है, और मैं मानता हूँ कि वैसा ही होगा। दयालभाई सहर्ष पत्र लिखे ऐसा उन्हे कहे और धर्मध्यानकी ओर प्रवृत्ति हो, इस कर्तव्यकी सूचना दे । "प्रवीणसागर" संबधी कोई उत्तर नही है सो लिखे। शासभव आत्माको पहचाननेको ओर ध्यान दे यही प्रार्थना है। कविराज-आपके निःस्वार्थ प्रेमके लिये विशेष'क्या लिखे ? मैं धनादिकसे तो आपका सहायक नहीं हो सकता, (और वैसा परमात्माका योगवल भी न करे । ) परन्तु आत्मासे सहायक होऊँ और कल्याणके मार्गपर आपको ला सकूँ, तो सर्व जय मंगल ही है । इतना उन्हे पढवाएँ। इसमेसे आपके लिये भी कुछ मनन करने योग्य है। दयालभाईके पास जाते रहे । नोकरीके दौरान जब-जब समय मिले तब-तब उनके सत्सगमे रहे, ऐसा मेरा अनुरोध है । अभी इतना ही। वि० रायचन्दके प्रणाम सत्पुरुषोको नमस्कारसहित ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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