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________________ २८ वॉ वर्ष ४९१ ६३८ राणपुर (हमतिया), भादो वदी १३, १९५१ दो पत्र मिले थे । कल यहाँ अर्थात् राणपुरके समीपके गाँवमे आना हुआ है । अति पत्र प्रश्न लिखे थे, वह पत्र कही गुम हुआ मालूम होता है । सक्षेपमे निम्नलिखित उत्तरका विचार कीजियेगा 1 (१) धर्म, अधर्मं द्रव्य स्वभावपरिणामी होनेसे निष्क्रिय कहे है । परमार्थनय से ये द्रव्य भी सक्रिय है । व्यवहारसे परमाणु, पुद्गल और ससारी जीव सक्रिय हैं, क्योंकि वे अन्योन्य ग्रहण, त्याग आदिसे. एक परिणामवत् सम्बन्ध पाते है | सड़ना यावत् विध्वस पाना यह पुद्गलपरमाणुका धर्म कहा है । परमार्थसे शुभ वर्णादिका पलटना और स्कधका मिलकर बिखर जाना कहा है .. [ पत्र खंडित ] ६३९ राणपुर, आसोज सुदी २, शुक्र, १९५१ हो सके तो जहाँ आत्मार्थकी कुछ भी चर्चा होती हो वहाँ जाने-आनेका और श्रवण आदिका प्रसग करना योग्य है | चाहे तो जैनके सिवाय दूसरे दर्शनको व्याख्या होती हो तो उसे भो विचारार्थ श्रवण करना योग्य है । बम्बई, आसोज सुदी ११, १९५१ आज सुबह यहाँ कुशलतासे आना हुआ है । वेदान्त कहता है कि आत्मा असंग है, जिनेन्द्र भी कहते हैं कि परमार्थनयसे आत्मा वैसा ही है । इसी असंगताका सिद्ध होना, परिणत होना—यह मोक्ष है । स्वत. वैसी असगता सिद्ध होना प्राय. असभवित है, और इसीलिये ज्ञानपुरुषोने, जिसे सर्व दुख क्षय करनेकी इच्छा है उस मुमुक्षुको सत्सगकी नित्य उपासना करनी चाहिये, ऐसा जो कहा है वह अत्यन्त सत्य है । हमारे प्रति अनुकंपा रखियेगा । कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा । श्री डुंगरको प्रणाम । 1 ६४१ बम्बई, आसोज सुदी १२, सोम, १९५१ " देखतभूली टळे तो सर्व दु खनो क्षय थाय' ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है, फिर भी उसो देखतभूलीके प्रवाहमे ही जीव बहा चला जाता है, ऐसे जीवोके लिये इस जगतमे कोई ऐसा आधार है कि जिस आधारसे, आश्रयसे वे प्रवाहमे न बहे ? प्राप्त हो ६४० ६४२ बबई, आसोज सुदी १३, १९५१ समस्त विश्व प्राय परकथा तथा परवृत्तिमे वहा चला जा रहा है, उसमे रहकर स्थिरता कहाँ से ? ऐसे अमूल्य मनुष्य जन्मका एक सम्य भी परवृत्तिसे जाने देना योग्य नही है, और कुछ भी वैसा हुआ करता है, इसका उपाय कुछ विशेषतः खोजने योग्य है । ज्ञानीपुरुषका निश्चय होकर अतर्भेद न रहे तो आत्मप्राप्ति एकदम सुलभ है, ऐसा ज्ञानी पुकारकर कह गये हैं, फिर भी लोग क्यो भूलते हैं ? श्री डुगरको प्रणाम । १. भावार्थ - देखते ही भूलनेकी आदत दूर हो जाये तो सर्व दुःखका क्षय हो जाये ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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