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________________ *९५८ __. मोरबी, संवत् १९५४-५५ श्री व्याख्यानसार-१ १. प्रथम गुणस्थानकमें ग्रंथि हैं उसका भेदन किये बिना आत्मा आगेके गुणस्थानकमें नहीं जा सकता । योगानुयोग मिलनेसे अकामनिर्जरा करता हुआ जीव आगे बढ़ता है, और ग्रंथिभेद करनेके समीप आता है । यहाँ ग्रन्थिको इतनी अधिक प्रबलता है कि वह ग्रंथिभेद करनेमें शिथिल होकर, असमर्थ होकर, वापस लौट आता है । वह हिम्मत करके आगे बढ़ना चाहता है, परन्तु मोहनीयके कारण रूपान्तर समझमें आनेसे वह ऐसा समझता है कि स्वयं ग्रन्थिभेद कर रहा है; बल्कि विपरीत समझनेरूप मोहके कारण ग्रन्थिकी निबिड़ता ही करता है। उसमेंसे कोई जीव ही योगानुयोग प्राप्त होनेपर अकामनिर्जरा करता हुआ अति बलवान होकर उस ग्रंथिको शिथिल करके अथवा दुर्वल करके आगे बढ़ जाता है। यह अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थानक है, जहाँ मोक्षमार्गकी सुप्रतीति होती है; इसका दूसरा नाम 'बोधबीज' है। यहाँ आत्माके अनुभवका श्रीगणेश होता है, अर्थात् मोक्ष होनेका बीज यहाँ वोया जाता है। २. इस 'बोधबीज गणस्थानक' रूप चौथे गुणस्थानसे तेरहवें गुणस्थानक तक आत्मानुभव एक-सा है, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्मकी निरावरणताके अनुसार ज्ञानकी विशुद्धता न्यूनाधिक होती है, उसके प्रमाणमें अनुभवका वर्णन कर सकता है। ३. ज्ञानावरणका सर्वथा निरावरण होना 'केवलज्ञान' अर्थात् 'मोक्ष' है; जो बुद्धिवलसे कहा नहीं जा सकता, परन्तु अनुभवगम्य है। * वि० सं० १९५४ और १९५५ में माघ माससे चैत्रमास तक धोमद्जी मारवीमें ठहरे थे। उस अत में उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उनका सार एक मुमुक्षु श्रोताने अपनी स्मृतिके अनुसार लिख लिया था जिसे यहां दिया गया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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