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________________ श्रीमद राजचन्द्र ज्ञानीपुरुषकी पहचान न होनेमे मुख्यत जीवके तीन महान दोष जानते है । एक तो 'मै जानता हूँ,' 'मै समझता हूँ,' हूँ, इस प्रकारका जो मान जीवको रहा करता है, वह मान । दूसरा, ज्ञानीपुरुषके प्रति रागकी अपेक्षा परिग्रहादिकमे विशेष राग । तीसरा, लोकभयके कारण, अपकीर्तिभयके कारण और अपमानभयके कारण ज्ञानीसे विमुख रहना, उनके प्रति जैसा विनयान्वित होना चाहिये वैसा न होना । ये तीन कारण जीवको ज्ञानीसे अनजान रखते है, ज्ञानीके विषयमे अपने समान कल्पना रहा करती है, अपनी कल्पनाके अनुसार ज्ञानीके विचारका, शास्त्रका तोलन किया जाता है, थोडा भी ग्रन्थसम्बन्धी वाचनादि ज्ञान मिलनेसे अनेक प्रकारसे उसे प्रदर्शित करनेकी जीवको इच्छा रहा करती है । इत्यादि दोष उपर्युक्त तीन दोषोमे समा जाते हैं, और इन तीनो दोषोका उपादान कारण तो एक स्वच्छद' नामका महा दोष है, और उसका निमित्त कारण असत्संग है । जिसे आपके प्रति, आपको किसी प्रकारसे परमार्थकी कुछ भी प्राप्ति हो, इस हेतुके सिवाय दूसरी स्पृहा नही है, ऐसा मैं यहाँ स्पष्ट बताना चाहता हूँ, और वह यह कि उपर्युक्त दोषोमे अभी आपको प्रेम रहता है, 'मैं जानता हूँ', 'मैं समझता हूँ,' यह दोष बहुत बार वर्तनमे रहता हैं, असार परिग्रह आदिमे भी महत्ता की इच्छा रहती है, इत्यादि जो दोष हैं वे ध्यान, ज्ञान इन सबके कारणभूत ज्ञानीपुरुष और उसकी आज्ञाका अनुसरण करनेमे आडे आते हैं । इसलिये यथासम्भव आत्मवृत्ति करके उन्हे कम करनेका प्रयत्न करना, और लौकिक भावनाके प्रतिबन्धसे उदास होना, यही कल्याणकारक है, ऐसा समझते हैं । ३६४ ४१७ आसोज, १९४८ हे परमकृपालु देव । जन्म, जरा, मरणादि सर्व दु खोका अत्यन्त क्षय करनेवाला वीतराग पुरुषका मूलमार्ग आप श्रीमानने अनन्त कृपा करके मुझे दिया, उस अनत उपकारका प्रत्युपकार करनेमे मै सर्वथा असमर्थ हूँ, फिर आप श्रीमान कुछ भी लेनेमे सर्वथा निस्पृह हैं, जिससे मै मन, वचन, कायाकी एकाग्रतासे आपके चरणारविंदमे नमस्कार करता हूँ । आपकी परमभक्ति और वीतराग पुरुषके मूलधर्मंकी उपासना मेरे हृदयमे भवपर्यन्त अखण्ड जागृत रहे, इतना माँगता हूँ, वह सफल हो । ॐ शांति शाति शाति । सं० १९४८ ४१८ *रविकै उदोत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीकै जीवन ज्यों, जीवन घटतु है; कालकै प्रसत छिन छिन, होत छीन तन, आरेकै चलत मानो काठसौ कटतु है, एते परि मूरख न खोजे परमारथकों, स्वारथकै हेतु भ्रम भारत ठटतु है; लगो फिरै लोगनिसों, पग्यो परै जोगनिस, विषैरस भोगनिसौं, नेकु न - हटतु है ॥१॥ *भावार्थ – जिस प्रकार अजलि - करसम्पुटका पानी क्रमश घटता है, उसी प्रकार सूर्यका उदय अस्त होता है और प्रतिदिन जीवन घटता है । जिस प्रकार आरेके चलनेसे लकडी कटती है, उसी प्रकार काल शरीरको क्षण क्षण क्षीण करता हैं । इतनेपर भी अज्ञानी जीव परमार्थकी खोज नही करता और लौकिक स्वार्थके लिये अज्ञानका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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