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________________ २२ वाँ वर्ष २०१ तत्त्वज्ञानकी गहरी गुफाका दर्शन करने जाये तो वहाँ नेपथ्यमेसे ऐसी ध्वनि ही निकलेगी कि आप कौन हैं ? कहाँसे आये है ? क्यो आये हे ? आपके पास यह सब क्या है ? आपको अपनी प्रतीति है ? आप विनाशी, अविनाशी अथवा कोई त्रिराशी है ? ऐसे अनेक प्रश्न उस ध्वनिसे हृदयमे प्रवेश करेंगे । और इन प्रश्नोसे जब आत्मा घिर गया तब फिर दूसरे विचारोके लिये बहत ही थोडा अवकाश रहेगा । यद्यपि इन विचारोसे ही अतमे सिद्धि है, इन्ही विचारोके विवेकसे जिस अव्यावाध सुखकी इच्छा है, उसकी प्राप्ति होती है, इन्ही विचारोके मननसे अनतकालको उलझन दूर होनेवाली है, तथापि ये सबके लिये नही है । वास्तविक दृष्टिसे देखनेपर उसे अत तक पानेवाले पात्रोकी न्यूनता बहुत है, काल बदल गया है, इस वस्तुका अधीरता अथवा अशौचतासे अत लेने जानेपर जहर निकलता है, और भाग्यहीन अपात्र दोनो लोकोसे भ्रष्ट होता है। इसलिये अमुक सन्तोको अपवादरूप मानकर बाकीको उस क्रममे आनेके लिये उस गुफाका दर्शन करनेके लिये बहुत समय तक अभ्यासकी जरूरत है । कदाचित् उस गुफाके दर्शन करनेकी उसकी इच्छा न हो तो भी अपने इस भवके सुखके लिये भी जन्म और मरणके वीचके भागको किसी तरह बितानेके लिये भी इस अभ्यासकी अवश्य जरूरत है। यह कथन अनुभवसिद्ध है, बहुतोको यह अनुभवमे आया है। बहुतसे आर्य पुरुष इसके लिये विचार कर गये है, उन्होने इसपर अधिकाधिक मनन किया है। जिन्होने आत्माकी शोध करके, उसके अपार मार्गकी बहुतोको प्राप्ति करानेके लिये, अनेक क्रम बाँधे हैं, वे महात्मा जयवान हो । और उन्हे त्रिकाल नमस्कार हो । हम थोडी देरके लिये तत्त्वज्ञानकी गुफाका विस्मरण करके आर्यों द्वारा उपदिष्ट अनेक क्रमोपर आनेके लिये परायण हैं, उस समयमे यह बता देना योग्य ही है कि जिसे पूर्ण आह्लादकर माना है और जिसे परमसुखकर, हितकर और हृदयमय माना है, वह वैसा है, अनुभवगम्य है, वह तो उसी गुफाका निवास है, और निरन्तर उसीकी अभिलाषा है। अभी कुछ उस अभिलाषाके पूर्ण होनेके चिह्न नहीं हैं, तो भी कमसे, इसमे इस लेखकका भी जय होगा ऐसी उसकी अवश्य शुभाकाक्षा है, और यह अनुभवगम्य भी है। अभीसे ही यदि योग्य रीतिसे उस क्रमकी प्राप्ति हो जाये, तो इस पत्रके लिखने जितनी देर करनेकी इच्छा नही है; परन्तु कालकी कठिनता है, भाग्यको मदता है, सन्तोको कृपादृष्टि दृष्टिगोचर नही है, सत्संगकी कमी है, वहाँ, कुछ ही तो भी उस क्रमका बीजारोपण हृदयमे अवश्य हो गया है, और यही सुखकर हुआ है। सृष्टिके राजसे जिस सुखके मिलने की आशा न थी, तथा किसी भी तरह चाहे जैसे औषधसे, साधनसे, स्त्रीसे, पुत्रसे, मित्र से या दूसरे अनेक उपचारसे जो अत शाति होनेवाली न थी, वह हुई है। निरतरको भविष्य कालकी-भीति चली गई है और एक साधारण उपजीवनमे प्रवृत्ति करता हुआ ऐसा आपका यह मित्र इसीको लेकर जीता है, नही तो जीनेमे अवश्य शका ही थी, विशेप क्या कहना ? यह भ्रम नही है, वहम नही है. अवश्य सत्य ही है। त्रिकालमे इस एक ही परम प्रिय और जीवनवस्तुकी प्राप्ति, उसका बीजारोपण क्यो और कैसे हआ इस व्याख्याका प्रसग यहाँ नही है, परन्तु अवश्य यही मुझे त्रिकाल मान्य हो । इतना हो कहनेका प्रसग हे । क्योकि लेखन समय बहुत थोडा है । इस प्रियजीवनको सभी पा जाये, सभी इसके योग्य हो, सभीको यह प्रिय लगे, सभीको इसमे रुचि हो, ऐसा भूतकालमे हुआ नही है, वर्तमानकालमे होनेवाला नहीं है, और भविष्यकालमे भी होना असम्भव है, और इसी कारणसे इस जगतकी विचित्रता त्रिकाल है। मनष्यके सिवाय दुसरे प्राणीकी जाति देखते हैं तो उसमे तो इस वस्तुका विवेक मालूम नहीं होता, अब जो मनुष्य रहे, उन सब मनुष्योमे भी वैसा नहीं देख सकेगे। [अपूर्ण)
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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