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________________ २७ वाँ वर्ष ४७७ बम्बई, कार्तिक सुदी ९, शुक्र, १९५० 'सिरपर राजा हे,' इतने वाक्यके ऊहापोह ( विचार ) से गर्भश्रीमत श्री शालिभद्रने उस समयसे स्त्री आदिके परिचयके त्याग करनेका श्रीगणेश कर दिया। 'प्रति दिन एक एक स्त्रीका त्याग करके अनुक्रमसे बत्तीस स्त्रियोका त्याग करना चाहते है. इस प्रकार श्री शालिभद्र बत्तीस दिन तक कालपारधीका विश्वास करते है, यह महान आश्चर्य है। ऐसे स्वाभाविक वैराग्यवचन श्री धनाभद्रके मुखसे उद्भवको प्राप्त हुए। 'आप जो ऐसा कहते है, यद्यपि वह मुझे मान्य है, तथापि आपके लिये भी उस प्रकारसे त्याग करना दुष्कर है, ऐसे सहज वचन शालिभद्रकी बहन और धनाभद्रकी पत्नीने धनाभद्रसे कहे । जिसे सुनकर चित्तमे किसी प्रकारका क्लेशपरिणाम लाये विना श्री धनाभद्रने उसी क्षण ससारका त्याग कर दिया और श्री शालिभद्रसे कहा कि 'आप किस विचारसे कालका विश्वास करते हैं ?" उसे सुनकर, जिसका चित्त आत्मरूप है ऐमा वह शालिभद्र और धनाभद्र 'मानो किसो दिन कुछ अपना किया ही नही', इस प्रकारसे गृहादिका त्याग करके चले गये। ऐसे सत्पुरुषके वैराग्यको सुनकर भी यह जीव बहुत वर्षोंके अभ्याससे कालका विश्वास करता आया है, वह कौनसे बलमे करता होगा? यह विचारकर देखने योग्य है । ४७८ बबई, कार्तिक सुदी १३, १९५० उपाधिके योगसे उदयाधोनरूपसे वाह्य चित्तकी क्वचित् अव्यवस्थाके कारण आप मुमुक्षुओके प्रति जैसा वर्तन करना चाहिये वैसा वर्तन हम नही कर सकते । यह क्षमा योग्य है, अवश्य क्षमा योग्य है। यही नम्न विनती। आ० स्व० प्रणाम। ४७९ बदई, मगसिर सुदी ३, सोम, १९५० वाणीका सयम श्रेयरूप है, तथापि व्यवहारका सम्बन्ध इस प्रकारका रहता है, कि सर्वथा वैसा सयम रखें तो प्रसगमे आनेवाले जीवोके लिये वह क्लेशका हेतु हो, इसलिये बहुत करके सप्रयोजन सिवायमे सयम रखा जाये, तो उसका परिणाम किसी प्रकारसे श्रेयरूप होना सम्भव है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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