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________________ ३०७ २४.वाँ वर्ष'; ' , - 05 :: in २८१, ६ ववाणिया, भादो वंदी १३, बुध, १९४७ कलियुग है इसलिये अधिक समय उपजीविकाका वियोग रहनेसे यथायोग्य वृत्ति पूर्वापर नहीं रहती। - वि० रायचदके यथायोग्य । 1 . , .... . , , , , ५ . २८२... "ववाणिया, भादो वदी १४, गुरु, १९४७ परम विश्राम सभाग्य - . - ,,,पत्र मिला । यहाँ भक्तिसम्बन्धी विह्वलता रहा करती है, और वैसा करनेमे हरीच्छा सुखदायक ही मानता हूँ । .. ... ... ....... महात्मा व्यासजीको जैसा हुआ था, वैसा हमे आजकल हो रहा है। आत्मदर्शन प्राप्त करनेपर भी व्यासजो आनन्दसपन्न नही हुए थे, क्योकि उन्होने हरिरस अखंडरूपसे नहीं गाया था। हमारी भी, ऐसी ही दशा है। अखड हरिरसका परम प्रेमसे अखण्ड अनुभव करना अभी कहाँसे, आये ? और जब तक ऐसा नही होगा तब तक हमे जगतकी वस्तुका एक अणु भी अच्छा नहीं लगेगा... . भगवान व्यासजी जिस युगमे थे, वह युग दूसरा, थायह कलियुग है। इसमे हरिस्वरूप, हरिनामा और हरिजन दृष्टिमे नही आते, श्रवणमे भी नही आते,, और इन तीनोमेसे किसीकी स्मृति हो ऐसी कोई भी वस्तु भी दिखायी नही देतो सभी साधन कलियुगसे घिर गये हैं। प्राय सभी जीवः उन्मार्गमे प्रवृत्त हैं, अथवा सन्मार्गके सन्मुख प्रवर्तते हुए दिखायो नही देते। क्वचित् मुमुक्षु हैं, परन्तु वे अभी मार्गके निकट नहीं हैं। . . . . . . . . . . . , , . . . . ।।। .: निष्कपटता भी मनुष्योमेसे. -चलो, गयी लगती है।। सिन्मार्गका एका अश और उसका शतांश भी किसीमे.भी दृष्टिगोचर नही होता, केवलज्ञानके,मार्गका तो सर्वथा विसर्जन हो गया है। कौन जाने हरिकी इच्छा भी क्या है ?. ऐसा विकट काल तो अभी हो देखा। सर्वथा मन्द पुण्यवाले प्राणी देखकर परम अनुकम्पा आती है। हमे सत्सगको न्यूनताकै कारण कुछ भी अच्छा नही लंगता । अनेक बार थोड़ा थोडा कहा गया है, तथापि स्पष्ट शब्दोमे कहा जानेसे स्मृतिमे अधिक रहे. इसलिये कहते हैं कि किसीसे अर्थसम्बन्ध और कामसम्बन्ध तो बहुत समयसे अच्छे ही नही लगते । आजकल धर्मसंबंध और मोक्षसबध भी अच्छे नही लगते । धर्मसबध और मोक्षसबध तो प्राय योगियोको भी अच्छे लगते है, और हम तो उनसे भी विरक्त रहना चाहते हैं। अभी तो हमे कुछ अच्छा नही लगता, और जो कुछ अच्छा लगता है, उसका अतिशय वियोग है,। अधिक क्या लिखें? सहन करना ही सुगम है।।। Ei3" - ... 7. ' ' । २८३. '. ववाणिया, भादों वदी ३०, शुक्र, १९४७ परम पूज्य श्री सुभाग्य, "" , 11' - - - - - - }, .. । यहां हरीच्छानुसार प्रवृत्ति है। भगवान मुक्ति देनेमे कृपण नही है, परन्तु भक्ति देनेमे कृपण है, ऐसा लगता है । भगवानको ऐसा लोभ किसलिये होगा? ... . . वि० रायचंदके प्रणाम । . .. २८४ ववाणिया, आसोज सुदी ६, गुरु, १९४७ १. परसमयको जाने बिना, स्वसमयको जाना है ऐसा नही.कहा जा सकता।। ... . २ परद्रव्यको जाने विना स्वद्रव्यको जाना है ऐसा, नही कहा जा सकता। . . , ,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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