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________________ ११४ श्रीमद् राजचन्द्र १९ शुद्ध करनीमे सावधान होना। २० सवरको अपनाना और पापको रोकना। २१ अपने दोषोको समभावपूर्वक दूर करना । २२ सर्व प्रकारके विषयसे विरक्त रहना। -२३ मूल गुणोमे पचमहाव्रतोको विशुद्ध पालना । २४ उत्तर गुणोमे पचमहाव्रतोको विशुद्ध पालना । २५ उत्साहपूर्वक कायोत्सर्ग करना । २६ प्रमादरहित ज्ञान व ध्यानमे प्रवर्तन करना । २७ सदैव आत्मचारित्रमे सूक्ष्म उपयोगसे प्रवृत्त रहना । २८ जितेन्द्रियताके लिये एकाग्रतापूर्वक ध्यान करना। २९. मरणात दु खसे भी भयभीत नही होना । ३० स्त्री आदिके सगका त्याग करना । ३१ प्रायश्चित्तसे विशुद्धि करना । ३२ मरणकालमे आराधना करना । यह एक एक योग अमूल्य है । इन सबका सग्रह करनेवाला परिणाममे अनत सुखको प्राप्त होता है। शिक्षापाठ ७३ : मोक्षसुख __इस सृष्टिमंडलमे भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ और मनकी इच्छाएँ रही हैं कि जिन्हे कुछ अशमे जानते हुए भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुएँ कुछ सम्पूर्ण शाश्वत या अनत भेदवाली नही हैं। ऐसी वस्तुका जब वर्णन नही हो सकता तब अनन्त सुखमय मोक्षसम्बन्धी उपमा तो कहाँसे मिलेगी ? गौतम स्वामीने भगवानसे मोक्षके अनन्त सूखके विषयमे प्रश्न किया तब भगवानने उत्तरमे कहा"गोतम | यह अनतसुख । मै जानता हूँ, परन्तु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नही है। जगतमे इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु या सुख नही है ।" ऐसा कहकर उन्होने निम्न आशयका एक भीलका दृष्टान्त दिया था। ____एक जगलमे एक भद्रिक भील अपने बालबच्चो सहित रहता था । शहर आदिको समृद्धिकी उपाधिका उसे लेश भान भी न था। एक दिन कोई राजा अश्वक्रीडाके लिये घूमता घूमता वहाँ आ निकला। उसे बहुत प्यास लगी थी, जिससे उसने इशारेसे भीलसे पानी मॉगा। भीलने पानी दिया। शीतल जलसे राजा सन्तुष्ट हुआ। अपनेको भीलकी तरफसे मिले हुए अमूल्य जलदानका बदला चुकानेके लिये राजाने भीलको समझाकर अपने साथ लिया। नगरमे आनेके बाद राजाने भीलको उसने जिन्दगीमे न देखी हुई वस्तुओमे रखा। सुन्दर महल, पासमे अनेक अनुचर, मनोहर छत्रपलग, स्वादिष्ट भोजन, मंद मद पवन और सुगन्धी विलेपनसे उसे आनन्दमय कर दिया । विविध प्रकारके हीरा, माणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंग-बिरगी अमूल्य वस्तुएँ निरन्तर उस भीलको देखनेके लिये भेजा करता था, और उसे वाग-बगीचोमे घूमने-फिरनेके लिये भेजा करता था। इस प्रकार राजा उसे सुख दिया करता था । एक रात जब सब सो रहे थे तब उस भीलको वालवच्चे याद आये, इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये किये बिना एकाएक निकल पड़ा। जाकर अपने कुटुम्बियोसे मिला। उन सबने मिलकर पूछा, "तू कहाँ था ?" भोलने कहा, “बहुत सुखमें ! वहाँ मैंने बहुत प्रंशसा करने योग्य वस्तुएँ देखी।" कुटुम्बी-परतु वे कैसी थी ? यह तो हमे बता।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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