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________________ १७ वॉ वर्ष विशेषार्थ हे चैतन्य | इस कायाको मल और मूत्रकी खानरूप, रोग और वृद्धताके रहनेके धाम जैसी मानकर उसका मिथ्या मान त्याग करके सनत्कुमारकी भाँति उसे सफल कर। इस भगवान सनत्कुमारका चरित्र अशुचिभावनाकी प्रामाणिकता बतानेके लिये यहाँ पर शुरू किया जाता है। दृष्टान्त-जो जो ऋद्धि, सिद्धि और वैभव भरतेश्वरके चरित्रमे वर्णित किये, उन सब वैभवादिसे युक्त सनत्कुमार चक्रवर्ती थे । उनका वर्ण और रूप अनुपम था। एक बार सुधर्मसभामे उस रूपकी स्तुति हुई । किन्ही दो देवोको यह बात न रुची। बादमे वे उस शकाको दूर करनेके लिये विप्रके रूपमे सनत्कुमारके अतःपुरमे गये। सनत्कुमारकी देहमे उस समय उबटन लगा हुआ था, उसके अगोपर मर्दनादिक पदार्थोंका मात्र विलेपन था । एक छोटी अङ्गोछी पहनी हुई थी। और वे स्नानमज्जन करनेके लिये बैठे थे। विपके रूपमे आये हुए देवता उनका मनोहर मुख, कचनवर्णी कागा और चन्द्र जैसी कान्ति देखकर बहुत आनन्दित हुए और जरा सिर हिलाया। इसपर चक्रवर्तीने पूछा, "आपने सिर क्यो हिलाया ?" देवोने कहा, "हम आपके रूप और वर्णका निरीक्षण करनेके लिये बहुत अभिलाषी थे। हमने जगह-जगह आपके वर्ण, रूपकी स्तुति सुनी थी, आज वह बात हमे प्रमाणित हुई, अत हमे आनन्द हुआ, और सिर इसलिये हिलाया कि जैसा लोगोमे कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है। उससे अधिक है परन्तु कम नही।" सनत्कुमार स्वरूपवर्णकी स्तुतिसे गर्वमे आकर बोले, "आपने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक है, परन्तु मै जब राजसभामे वस्त्रालकार धारण करके सर्वथा सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ, तब मेरा रूप और मेरा वर्ण देखने योग्य है, अभी तो मैं शरीरमे उबटन लगाकर बैठा हूँ। यदि उस समय आप मेरा रूप वर्ण देखेंगे तो अद्भुत चमत्कारको प्राप्त होगे और चकित हो जायेगे।" देवोने कहा, "तो फिर हम राजसभामे आयेगे," यो कहकर वे वहाँसे चले गये । तत्पश्चात् सनत्कुमारने उत्तम और अमूल्य वस्त्रालंकार धारण किये। अनेक प्रसाधनोसे अपने शरीरको विशेष आश्चर्यकारी ढगसे सजाकर वे राजसभामे आकर सिंहासनपर बैठे । आसपास समर्थ मत्री, सुभट, विद्वान और अन्य सभासद अपने-अपने आसनोपर बैठ गये थे। राजेश्वर चमरछत्रसे और खमाखमाके उद्गारोसे विशेष शोभित तथा सत्कारित हो रहे थे। वहाँ वे देवता फिर विपके रूपमे आये। अद्भुत रूपवर्णसे आनन्दित होनेके बदले मानो खिन्न हुए हो ऐसे ढगसे उन्होने सिर हिलाया। चक्रवतीने पूछा, "अहो ब्राह्मणो | गत समयको अपेक्षा इस समय आपने और ही तरहसे सिर हिलाया है, इसका क्या कारण है सो मुझे बतायें ।' अवधिज्ञानके अनुसार विप्रोने कहा, "हे महाराजन् | उस रूपमे और इस रूपमे भूमि-आकाशका फर्क पड़ गया है।" चक्रवर्तीने उसे स्पष्ट समझानेके लिये कहा । ब्राह्मणोने कहा, "अधिराज | पहले आपकी कोमल काया अमृततुल्य थी, इस समय विपतुल्य है। इसलिये जव अमृततुल्य अग था तब हमे आनन्द हुआ था। इस समय विषतुल्य है अत हमे खेद हुआ है। हम जो कहते हैं उस बातको सिद्ध करना हो तो आप अभी ताबूल थूके, तत्काल उस पर मक्षिका वैठेगी और परधामको प्राप्त होगी।" __ सनत्कुमारने यह परीक्षा की तो सत्य सिद्ध हुई। पूर्व कर्मके पापके भागमे इस कायाके मदका मिश्रण होनेसे इस चक्रवर्तीकी काया विपमय हो गयी थी। विनाशी और अशुचिमय कायाका ऐसा प्रपच देखकर सनत्कुमारके अत करणमे वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह ससार सर्वथा त्याग करने योग्य है। ऐसीकी ऐसी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमे है । यह सब मोह-मान करने योग्य नहीं है, यो कहकर वे छ खण्डकी प्रभुताका त्याग करके चल निकले। वे जव साधुरूपमे .विचरते थे तव महारोग उत्पन्न हुआ। उनके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेके लिये कोई देव वहाँ वैद्यके रूपमे आया। साधुको कहा, "मैं वहत कुशल राजवैद्य हूँ, आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है, यदि इच्छा हो तो तत्काल मै उस रोगको दूर कर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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