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________________ श्रीमद राजचन्द्र साज दिया, ओर ये महाविरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर चतुर्गति, चौबीस दंडक, तथा आधि, व्याधि एवं उपाधि विरक्त हुए । चपल ससार के सकल सुख - विलाससे इन्होने निवृत्ति ली, प्रियाप्रियका भेद चला गया, और ये निरन्तर स्तवन करने योग्य परमात्मा हो गये । ४८ प्रमाणशिक्षा - इस प्रकार ये छ खंडके प्रभु, देवोंके देव जैसे, अतुल साम्राज्यलक्ष्मी के भोक्ता, महायुके धनी, अनेक रत्नोके धारक, राजराजेश्वर भरत आदर्शभुवनमे केवल अन्यत्वभावना उत्पन्न हो शुद्ध विरागी हुए I सचमुच भरतेश्वरका मनन करने योग्य चरित्र संसारकी शोकार्तता और उदासीनताका पूरा-पूरा भाव, उपदेश और प्रमाण प्रदर्शित करता है । कहिये । इनके यहाँ क्या कमी थी ? न थी इन्हे नवयौवना स्त्रियोकी कमी कि न थी राजऋद्धिको कमी, न थी विजयसिद्धिकी कमी कि न थी नवनिधिकी कमी, न थी पुत्र समुदायकी कमी कि न थी कुटुम्ब परिवारकी कमी, न थी रूपकातिकी कमी कि न थी यश कीर्तिकी कमी ! इस तरह पहले कही हुई इनकी ऋद्धिका पुनः स्मरण कराकर प्रमाणसे शिक्षाप्रसादीका लाभ देते है कि भरतेश्वरने विवेक से अन्यत्वके स्वरूपको देखा जाना और सर्पकचुकवत् ससारका परित्याग करके उसके मिथ्या ममत्वको सिद्ध कर दिया । महावैराग्यकी अचलता, निर्ममता और आत्मशक्तिकी प्रफुल्लितता, यह सब इस महायोगीश्वरके चरित्र गर्भित है । 1 एक पिता के सौ पुत्रोमेले निन्यानवें पुत्र पहले से ही आत्मसिद्धिको साधते थे । सौवें इन भरतेश्वरने आत्मसिद्धि साधी । पिताने भो यही सिद्धि साधी । उत्तरोत्तर आनेवाले भरतेश्वरी राज्यासनके भोगी इसी आदर्शभुवनमे इसी सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ऐसा कहा जाता है । यह सकल सिद्धिसाधक मंडल अन्यत्वको ही सिद्ध करके एकत्वमे प्रवेश कराता है। अभिवन्दन हो उन परमात्माओको । ( शार्दूलविक्रीडित ) देखी आगळी आप एक अडवी, वैराग्य वेगे गया, छांडी राजसमाजने भरतजी, कैवल्यज्ञानी थया । चोथु चित्र पवित्र ए ज चरिते, पाम्युं अहीं पूर्णता, ज्ञानीना मन तेह रंजन करो, वैराग्य भावे यथा ॥ विशेषार्थ - जिसने अपनी एक उँगलोको शोभाहीन देखकर वैराग्य के प्रवाहमे प्रवेश किया, और जिसने राजसमाजको छोड़कर केवलज्ञान प्राप्त किया, ऐसे उस भरतेश्वरके चरित्रको धारण करके यह चौथा चित्र पूर्णताको प्राप्त हुआ । यह यथोचित वैराग्य भाव प्रदर्शित करके ज्ञानीपुरुषोके मनको रजन करनेवाला हो । 1 भावनावोघ ग्रन्थमें अन्यत्वभावनाके उपदेशके लिये प्रथम दर्शनके चतुर्थ चित्रमे भरतेश्वरका दृष्टान्त और प्रमाणशिक्षा पूर्णताको प्राप्त हुए । पंचम चित्र अशुचिभावना ( गीतिवृत्त ) खाण मूत्र ने मळनी, रोग जरानुं निवासनु धाम । काया एवी गणीने, मान त्यजीने कर सार्थक आम ॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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