SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ श्रीमद राजचन्द्र सर्वसगका त्यागी होना चाहिये। ऐसा न हो तो वधनका नाश नही होता । जिसका स्वच्छंद नष्ट हुआ है, उसको जो प्रतिवध है, वह अवसर प्राप्त होनेपर नष्ट होता है, इतनो शिक्षा स्मरण करने योग्य है । यदि व्याख्यान करना पडे तो करे, परन्तु इस कार्यकी अभी मेरी योग्यता नही है और यह मुझे प्रतिवध है, ऐसा समझते हुए उदासीन भावसे करे । उसे न करनेके लिये श्रोताओको रुचिकर तथा योग्य लगें ऐसे प्रयत्न करे, और फिर भो जब करना पडे तो उपर्युक्त के अनुसार उदासीन भाव समझकर करे । १९७ बबई, माघ सुदी ९, मंगल, १९४७ आपका आनदरूप पत्र मिला । ऐसे पत्रके दर्शनको तृषा अधिक है । ज्ञानके परोक्ष-अपरोक्ष' होनेके विपयमे पत्रसे लिखा जा सकना सम्भव नही है, परन्तु सुधाकी धारा के पीछेके कितने ही दर्शन हुए है, और यदि असगता के साथ आपका सत्सग हो तो अतिम स्वरूप परिपूर्ण प्रकाशित हो ऐसा है, क्योकि उसे प्राय सर्व प्रकारसे जाना है, और वही राह उसके दर्शनकी है। इस उपावियोगमे भगवान इस दर्शनको नही होने देंगे, ऐसा वे मुझे प्रेरित करते है, इसलिये जब एकातवासी हुआ जायेगा तब जान-बूझकर भगवानका रखा हुआ परदा मात्र थोडे ही प्रयत्नसे दूर हो जायेगा । इसके अतिरिक्त दूसरे स्पष्टीकरण पत्र द्वारा नही किये जा सकते । अभी आपके समागमके बिना आनदका रोध है | वि० आज्ञाकारी १९८ बबई, माघ सुदी ११, गुरु, १९४७ सत्को अभेद भावसे नमोनम. पत्र आज मिला । यहाँ आनन्द है ( वृत्तिरूप ) | आजकल किस प्रकारसे कालक्षेप होता है सो लिखियेगा | दूसरी सभी प्रवृत्तियोकी अपेक्षा जीवको योग्यता प्राप्त हो ऐसा विचार करना योग्य है, और उसका मुख्य साधन सर्व प्रकारके कामभोगसे वैराग्यसहित सत्सग है । सत्सग (समवयस्क पुरुपोका, समगुणी पुरुपोका योग ) मे, जिसे सत्का साक्षात्कार है ऐसे पुरुषके वचनोका परिशीलन करना कि जिससे कालक्रमसे सत्की प्राप्ति होती है । जीव अपनी कल्पनासे किसी भी प्रकार से सत्को प्राप्त नही कर सकता । सजीवनमूर्तिके प्राप्त होनेपर ही सत् प्राप्त होता है, सत् समझमे आता है, सत्का मार्ग मिलता है और सत्पर ध्यान आता है । सजीवनमूर्तिके लक्षके बिना जो कुछ भी किया जाता है, वह सब जीवके लिये बन्धन है । यह मेरा हार्दिक अभिमत है । यह काल सुलभबोधिता प्राप्त होने मे विघ्नभूत है । फिर भी अभी उसकी विषमता कुछ ( दूसरे कालकी अपेक्षा बहुत) कम है, ऐसे समयमे जिससे वक्रता व जडता प्राप्त होती है ऐसे मायिक व्यवहारमे उदासीन होना श्रेयस्कर है सत्का मार्ग कही भी दिखायी नही देता । आप सबको आजकल जो कुछ जैनकी पुस्तकें पढनेका परिचय रहता हो, उसमे से जिस भागमे जगतका विशेष वर्णन किया हो उस भागको पढ़नेका व्यान कम रखें; और जीवने क्या नही किया ? और अब क्या करना ? इस भागको पढने और विचारनेका विशेष ध्यान रखें । कोई भी दूसरे धर्मक्रियाके नामसे जो आपके सहवासी (श्रावक आदि ) क्रिया करते हो, उसका निषेध न करें । अभी जिसने उपाधिरूप इच्छा अगीकार की है, उस पुरुषको किसी भी प्रकारसे प्रगट न करें ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy