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________________ २२ वा वर्ष १८१ ववाणिया, माघ, १९४५ जिज्ञासु, आपके प्रश्नको उद्धृत करके अपनी योग्यताके अनुसार आपके प्रश्नका उत्तर लिखता हूँ। प्रश्न-व्यवहारशुद्धि कैसे हो सकती है ? उत्तर-व्यवहारशुद्धिको आवश्यकता आपके ध्यानमे होगी, फिर भी विषयके प्रारभके लिये आवश्यक समझकर यह बतलाना योग्य है कि जो ससारप्रवृत्ति इस लोक और परलोकमे सुखका कारण हो उसका नाम व्यवहारशुद्धि है। सुखके सब अभिलाषी हैं, जब व्यवहारशुद्धिसे सुख मिलता है तब उसकी आवश्यकता भी निःशक है। १ जिसे धर्मसबधी कुछ भी बोध हुआ है, और जिसे कमानेकी जरूरत नही है, उसे उपाधि करके कमानेका प्रयत्न नही करना चाहिये । २ जिसे धर्मसम्बन्धी बोध हुआ है, फिर भी स्थितिका दुख हो तो उसे यथाशक्ति उपाधि करके कमानेका प्रयत्न करना चाहिये । ( जिसकी अभिलाषा सर्वसगपरित्यागी होनेको है उसका इन नियमोसे सम्बन्ध नही है।) ३. उपजीवन सुखसे-चल सके ऐसा होनेपर भी जिसका मन लक्ष्मीके लिये वेचैन रहता हो वह पहले उसकी वृद्धि करनेका कारण अपने आपको पूछे । यदि उत्तरमे परोपकारके सिवाय कुछ भी प्रतिकूल बात आती हो, अथवा पारिणामिक लाभको हानि पहुंचनेके सिवाय कुछ भी आता हो तो मनको सतोषी बना ले, ऐसा होनेपर भी मन न मुड सकनेको स्थितिमे हो तो अमुक मर्यादामे आ जाये। वह मर्यादा ऐसी होनी चाहिये कि जो सुखका कारण हो । - ४ परिणामत. आतध्यान करनेकी जरूरत पडे, तो वैसा करके बैठ रहनेकी अपेक्षा कमाना अच्छा है। । ५ जिसका उपजीवन अच्छी तरह चलता है, उसे किसी भी प्रकारके अनाचारसे लक्ष्मी प्राप्त नही करनी चाहिये। जिससे मनको सुख नही होता उससे काया या वचनको भी सुख नही होता । अनाचारसे मन सुखी नही होता, यह स्वत अनुभवमे आने जैसा कथन है।' ६ लाचारीसे उपजीवनके लिये कुछ भी अल्प अनाचार ( असत्य और सहज माया) का सेवन करना पडे तो महाशोचसे सेवन करना, प्रायश्चित्त ध्यान रखना । सेवन करनेमे निम्नलिखित दोप नही आने चाहिये - १ किसीसे महान विश्वासघात ८ अन्यायी भाव कहना . २ मित्रसे विश्वासघात ९. निर्दोषको अल्प मायासे भी ठगना ३. किसीकी धरोहर हड़प कर जाना १० न्यूनाधिक तोल देना ४ व्यसनका सेवन करना ११ एकके बदले दूसरा अथवा मिश्रण करके देना ५ मिथ्या दोषारोपण १२ कर्मादानी धंधा। ६ झूठा दस्तावेज लिखना १३ रिश्वत अथवा अदत्तादान ७. हिसाबमे भुलाना । -इन मार्गोसे कुछ नी कमाना नही । यह मानो उपजीवनके लिये सामान्य व्यवहारशुद्धि कह गया। [ अपूर्ण]
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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