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________________ ४४६ श्रीमद राजचन्द्र ध्यान होकर ज्ञानीके मार्गकी अवहेलना होती है । इस बातका स्मरण रखकर ज्ञानकथा लिखियेगा । विशेष आपका पत्र आनेपर । यह हमारा आपको लिखना सहज कारणसे है । यही विनती । ५४५ बबई, मार्गशीर्ष वदी १, गुरु, १९५१ कुछ ज्ञान वार्ता लिखियेगा । अभी व्यवसाय विशेष है | कम करनेका अभिप्राय चित्तसे खिसकता नही है । और अधिक होता आ० स्व० प्रणाम । रहता है । ५४६ बंबई, मार्गशीर्ष वदी ३, शुक्र, १९५१ प्र०— "जिसका मध्य नही, अर्ध नही, अछेद्य, अभेद्य इत्यादि परमाणुकी व्याख्या श्री जिनेंद्रने कही है, तो इसमे अनत पर्याय किस तरह हो सकते हैं ? अथवा पर्याय यह एक परमाणुका दूसरा नाम होगा ? या किस तरह ?" इस प्रश्नवाला पत्र आया था । उसका समाधान - प्रत्येक पदार्थके अनत पर्याय ( अवस्थाएं ) हैं । अनत पर्याय के बिना कोई पदार्थ नही हो सकता, ऐसा श्री जिनेद्रका अभिमत है, और वह यथार्थ लगता है, क्योकि प्रत्येक पदार्थ समय समयमे अवस्थातरता पाता हुआ होना चाहिये, ऐसा प्रत्यक्ष दिखायी देता है । क्षण-क्षणमे जैसे आत्मामे सकल्प-विकल्प परिणति होकर अवस्थातर हुआ करता है, वैसे परमाणुमे वर्ण, गंध, रस, रूप अवस्थातरता पाते है, वैसी अवस्थातरता पानेसे उस परमाणुके अनंत भाग हुए, यह कहना योग्य नही है, क्योकि वह परमाणु अपनी एकप्रदेशक्षेत्रावगाहिताका त्याग किये बिना उस अवस्थातरको प्राप्त होता है । एकप्रदेशक्षेत्रावगाहिताके वे अनंत भाग नही हो सकते । समुद्र एक होनेपर भी जैसे उसमे तरंगें उठती है, और वे तरगे उसीमे समाती हैं, तरगरूपसे उस समुद्रकी अवस्थाएँ भिन्न भिन्न होती रहनेसे भी समुद्र अपने अवगाहक क्षेत्रका त्याग नही करता, और कुछ समुद्रके अनंत भिन्न भिन्न टुकडे नही होते, मात्र अपने स्वरूपमे वह रमण करता है, तरगता यह समुद्रकी परिणति है, यदि जल शात हो तो शातता यह उसकी परिणति है, कुछ भी परिणति उसमे होनी ही चाहिये । उसी तरह वर्णगंधादि परिणाम परमाणुमे बदलते रहते हैं, परन्तु उस परमाणुके कुछ टुकडे होनेका प्रसंग नही होता, अवस्थातरताको प्राप्त होता रहता है । जैसे सोना कुडलाकारको छोड़कर मुकुटाकार होता है वैसे परमाणु, इस समयकी अवस्था से दूसरे समयकी कुछ अंतरवाली अवस्थाको प्राप्त होता है। जैसे सोना दोनो पर्यायोको धारण करते हुए भी सोना ही है, वैसे परमाणु भी परमाणु ही रहता है । एक पुरुष (जीव ) बालकपन छोड़कर युवा होता है, युवत्व छोड़कर वृद्ध होता है, परन्तु पुरुष वहीका वही रहता है, वैसे परमाणु पर्यायोको प्राप्त होता है । आकाश भी अनंत पर्यायी है और सिद्ध भी अनत पर्यायी है, ऐसा जिनेद्रका अभिप्राय है, वह विरोधी नही लगता, प्राय मेरी समझ मे आता है परन्तु विशेषरूपसे लिखनेका न हो सकनेसे आपको यह बात विचार करनेमे कारण हो, इसलिये ऊपर ऊपरसे लिखा है । चक्षुमे जो निमेषोन्मेषकी अवस्थाएँ हैं, वे पर्याय हैं । दीपककी जो चलनस्थिति वह पर्याय है । आत्माकी सकल्प-विकल्प दशा या ज्ञानपरिणति, वह पर्याय है । उसी तरह वणं, गध आदि परिणामोको प्राप्त होना ये परमाणु के पर्याय हैं । यदि वैसा परिणमन न होता हो तो यह जगत ऐसी विचित्रताको प्राप्त नही कर सकता, क्योकि एक परमाणुमे पर्यायता न हो तो सर्वं परमाणुओमे भी नही होती । सयोगवियोग, एकत्व-पृथक्त्व इत्यादि परमाणुके पर्याय हैं और वे सब परमाणुमे हैं। यदि वे भाव समय समय पर उसमे परिणमन पाते रहे तो भी परमाणुका व्यय ( नाश) नही होता, जैसे कि निमेषोन्मेषसे चक्षुका नाश नही होता ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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