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________________ २८ वो वर्ष स० १९५१ ज्ञानीपुरुषोको समय-समयमे अनत सयमपरिणाम वर्धमान होते है ऐसा सर्वज्ञने कहा है, यह सत्य है। वह सयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिसे ब्रह्मरसके प्रति स्थिरता होनेसे उत्पन्न होता है। ५४२ , बंबई, कार्तिक सुदी १५, मगल १९५१ श्री सोभागभाईको मेरा यथायोग्य कहियेगा। उन्होने श्री ठाणागसूत्रकी एक चौभगीका उत्तर विशेष समझनेके लिये मांगा था, उसे संक्षेपर यहाँ लिखा है १ एक, आत्माका भवात करे, परन्तु दूसरेका न करे, वे प्रत्येकबुद्ध या असोच्या केवली हैं। क्योकि वे उपदेशमार्गका प्रवर्तन नही करते है, ऐसा व्यवहार है। २ एक, आत्माका भवात न कर सके, और दूसरेका भवात करे, 'वे अचरमशरीरी आचार्य, अर्थात् जिन्हे अभी अमुक भव वाकी हैं, परन्तु उपदेशमार्गका आत्मा द्वारा ज्ञान है, इससे उनसे उपदेश सुनकर सुननेवाला जीव उसी भवमे भवका अंत भी कर सकता है, और आचार्य उस भवमे भवात करनेवाले न होनेसे उन्हे दूसरे भगमे रखा है, अथवा कोई जीव पूर्वकालमे ज्ञानाराधन कर प्रारब्धोदयसे मद क्षयोपशमसे वर्तमानमे मनुष्यदेह पाकर, जिसने मार्ग नही जाना है ऐसे किसी उपदेशकके पाससे उपदेश सुनते हुए पूर्वसस्कारसे, पूर्वके आराधनसे ऐसा विचार प्राप्त करे कि यह प्ररूपणा अवश्य मोक्षका हेतु नही होगी, क्योकि वह अज्ञानतासे मार्ग कहता है, अथवा यह उपदेश देनेवाला ‘जीव स्वयं अपरिणामी रहकर उपदेश करता है, यह महा अनर्थ है, ऐसा विचार करते हुए पूर्वाराधन जागृत हो और उदयका छेदनकर भवात करे, जिससे निमित्तिरूप ग्रहण करके वैसे उपदेशकका भी इस भगमे समावेश किया हो, ऐसा लगता है । ३ जो स्वय तरें और दूसरोको तारें, वे श्री तीर्थकरादि है। ४ जो स्वय भी न तरे और दूसरोको भी न तार सके वह 'अभव्य या दुर्भव्य' जीव है। इस प्रकार समाधान किया हो तो जिनागम विरोधको प्राप्त नहीं होता । इस विषयमे विशेष पूछनेकी इच्छा हो तो पूछियेगा, ऐसा सोभागभाईको कहियेगा। लि० रायचदका प्रणाम। ५४३ बंबई, कार्तिक, १९५१ अन्यसम्बन्धी जो तादात्म्य भासित हुआ है, वह तादात्म्य निवृत्त हो तो सहजस्वभावसे आत्मा मुक्त ही है। ऐसा श्री ऋषभादि अनत ज्ञानीपुरुष कह गये हैं, यावत् तथारूपमे समा गये हैं। वबई, कार्तिक वदी १३, रवि, १९५१ ___ आपका पत्र, मिला है । यहाँ सुखवृत्ति है । जब प्रारब्धोदय द्रव्यादि कारणमे निर्वल हो तब विचारवान जीवको विशेष प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है, अथवा धीरता रखकर आसपासको वहुत सभालसे प्रवृत्ति करना योग्य है, एक लाभका ही प्रकार देखते रहकर करना योग्य नहीं है । इस वातको समझानेका हमारा प्रयल होनेपर भी आपको उस बात पर यथायोग्य संलग्नचित्त हो जानेका योग नहीं हुआ, इतना चित्तमे विक्षेप रहा, तथापि आपके आत्मामे वेसी बुद्धि किसी भी दिन नही हो सकती कि आपसे हमारे वचनके प्रति कुछ गौणभाव रखा जाये, ऐसा जानकर हमने आपको उपालभ नही दिया। तथापि अव यह बात ध्यानमे लेनेमे बाधा नही है। आकुल होने से कुछ कर्मको निवृत्ति चाहते हैं, वह नहीं होती; और आत
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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