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________________ २८ वाँ वर्ष ४४७ ५४७ 1 मोहमयी क्षेत्र, मार्गशीर्ष वदी ८, बुध, १९५१ यहाँसे निवृत्त होनेके बाद प्राय दत्राणिया अर्थात् इस भवके जन्म-ग्राममे साधारण व्यावहारिक प्रतगसे जानेका कारण है । चित्तमे अनेक प्रकारसे उस प्रसगसे छूट सकनेका विचार करते हुए छूटा जा सके यह भी सम्भव है, तथापि बहुतसे जीवोको अल्प कारणमे कदाचित् विशेष असमाधान होनेका सम्भव रहे, जिससे अप्रतिबंधभावको विशेष दृढ करके जानेका विचार रहता है । वहाँ जानेपर, कदाचित् एक माससे विशेष समय लग जानेका सभव है, शायद दो मास भी लग जायें । उसके वाद फिर वहाँसे लौट - कर इस क्षेत्रकी तरफ आना पड़े, ऐसा है, फिर भी यथासम्भव बीचमे दो-एक मास एकान्त जैसा निवृत्तियोग हो सके तो वैसा करनेको इच्छा रहती है, और वह योग अप्रतिबधरूपसे हो सके, इसका विचार करता हूँ । 1 1 सर्व व्यवहारसे निवृत्त हुए विना चित्त एकाग्र (स्थिर) नही होता, ऐसे अप्रतिबंध - असगभावका चित्तमे बहुत विचार किया होनेसे उसी प्रवाहने रहना होता है । परतु उपार्जित प्रारब्ध निवृत्त होनेपर वैसा हो सके, इतना प्रतिवध पूर्वकृत है, आत्माकी इच्छाका प्रतिबध नही है । सर्व सामान्य लोकव्यवहारको निवृत्ति सम्बन्धी प्रसगके विचारको दूसरे प्रसगपर बताना रखकर, इस क्षेत्र से निवृत्त होनेका विशेष अभिप्राय रहता है, वह भी उदयके कारण नहीं हो सकता । तो भी अहर्निश यही चिन्तन रहता है, तो वह कदाचित् थोड़े समयमे होगा ऐना लगता है। इस क्षेत्रके प्रति कुछ द्वेष परिणाम नही है, तथापि सगका विशेष कारण है । प्रवृत्तिके प्रयोजनके बिना यहाँ रहना कुछ आत्माके लिये वैसे लाभका कारण नही है, 'ऐसा जानकर, इस क्षेत्रसे निवृत्त होनेका विचार रहता है । प्रवृत्ति भी निजबुद्धिसे किसी भी प्रकारसे प्रयोजनभूत नही लगती, तथापि उदयके अनुसार प्रवृत्ति करनेके ज्ञानीके उपदेशको अगीकार करके उदय भोगनेका प्रवृत्तियोग सहन करते है । - आत्मामे ज्ञानद्वारा उत्पन्न हुआ. यह निश्चय बदलता नही है कि सर्वसंग बड़ा आस्रव है; चलते, देखते और प्रसग करते हुए समय मात्रमे यह निजभावका विस्मरण करा देता है, और यह बात सर्वथा प्रत्यक्ष देखने आयी है, आती है, और आ सकने जैसी है; इसलिए अहर्निश उस बड़े आस्रवरूप सर्वसगमे उदासीनता रहती है, और वह दिन प्रतिदिन बहते हुए परिणामको प्राप्त करती रहती है, वह उससे विशेष परिणामको प्राप्त करके सर्वंसगले निवृत्ति हो, ऐसी अनन्य कारणयोगसे इच्छा रहती है । यह पत्र प्रथमसे व्यावहारिक आकृतिमे लिखा गया हो ऐसा कदाचित् लगे, परतु इसमे यह सहज मात्र नही है । असगताका, आत्मभावनाका मात्र अल्प विचार लिखा है । आ० स्व० प्रणाम । ५४८ बबई, मार्गशीर्ष वदी ९, शुक्र, १९५१ परन स्नेही श्री सोभाग, आपके तीन पत्र आये हैं । एक पत्रमे दो प्रश्न लिखे थे, जिनमेसे एकका समाधान नोचे लिखा है । ज्ञानीपुरुषका सत्सग होनेसे, निश्चय होनेसे और उसके मार्गका आराधन करनेसे जीवके दर्शनमोहनोय कर्मका उपशम या क्षय होता है, और अनुक्रमसे सर्व ज्ञानको प्राप्ति होकर जीव कृतकृत्य होता है, यह वात प्रगट सत्य है; परन्तु उससे उपार्जित प्रारब्ध भी भोगना नहीं पड़ता, ऐसा सिद्धात नही हो सकता । केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसे वीतराग को भी उपार्जित प्रारख्वरूप ऐसे चार कर्म भोगने पडते है, तो उससे नीची भूमिकामे स्थित जीवोको प्रारब्ध भोगना पड़े, इसमे कुछ आश्चयं नही है । जैसे सर्वज्ञ वीत 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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