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यीत्
श्रीमद राजचन्द्र ध्यान जोग जाणो ते जोन
जे भवदुःखथी डरत सदीव ॥' जिसने मोक्षके अतिरिक्त सभी प्रकारकी आशाका त्याग किया है, और जो ससारके भयकर दुःखोंसाचार निरतर कॉपता है, ऐसे जीवात्माको ध्यान करने योग्य जानें । परनिंदा मुखथी नवि करे,
मासे व निज निदा सुणी समता धरे। करे सहु विकथा परिहार,
का समय रोके कर्म आगमन द्वार॥ जिसने अपने मुखसे परकी निंदाका त्याग किया है, अपनी निंदा सुनकर जो समता धारण करके रेस्ट रहता है, स्त्री, आहार, राज, देश इत्यादि सवकी कथाओका जिसने नाश कर दिया है, और कर्मके प्रवेश दुवै करनेके द्वार जो अशुभ मन, वचन और काया है, उन्हे जिसने रोक रखा है।
अनिश अधिका प्रेम लगावे, जोगानल घटमाहि जगावे।
अल्पाहार आसन दृढ करे, नयन थकी निद्रा परिहरे॥ दिनरात ध्यानविषयमे बहत प्रेम लगाकर घटमे योगरूपी अग्नि (कर्मको जला देनेवाली) जगाये। (यह मानो ध्यानका जीवन है।) अब इसके अतिरिक्त उसके दूसरे साधन बताते है।
थोड़ा आहार और आसनकी दढता करे । पद्म, वीर, सिद्ध अथवा चाहे जो आसन कि जिससे मन वारवार विचलित न हो ऐसा आसन यहाँ समझाया है । इस प्रकार आसनका जय करके निद्राका परित्याग कर। यहाँ परित्यागको देशपरित्याग बताया है। जिस निद्रासे योगमे बाधा आती हे उस निद्रा अर्थात् प्रमत्तताका कारण और दर्शनावरणकी वृद्धि इत्यादिसे उत्पन्न होनेवाली अथवा अकालिक निद्राका त्याग करे।
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मेरा मेरा मत करे, तेरा नहि है कोय।
चिदानन्द परिवारका, मेला है दिन दोय ॥४ चिदानदजी अपने आत्माको उपदेश देते है कि हे जीव | मेरा मेरा मत कर, तेरा कोई नही है। हे चिदानद । परिवारका मेला तो दो दिनका है।
ऐसा भाव निहार नित, कोजे ज्ञान विचार ।
मिटेन ज्ञान बिचार बिन, अतर भाव-विकार ॥ ऐसा क्षणिक भाव निरंतर देखकर हे आत्मन् | ज्ञानका विचार कर | ज्ञानविचार किये बिना (मात्र अकेली बाह्य क्रियासे) अतरमे भाव-कमके रहे हुए विकार नही मिटते।
ज्ञान-रवि वैराग्य 'जस, हिरदे चंद समान।
तास निकट कहो क्यो रहे, मिथ्यातम दुख जान ॥६ जीव | समझ कि जिसके हृदयमे ज्ञानरूपी सूर्यका प्रकाश हुआ है, और जिसके हृदयमे वैराग्यरूपी चद्रका उदय हुआ है, उसके समीप क्योकर रह सकता है ?-क्या ? मिथ्या भ्रमरूपी अधकारका दु.ख ।
४ पद्य सख्या ३८१ ५. पद्य सख्या ३८२
१ पद्य सख्या ८३ २ पद्य संख्या ८४ ३ पद्य सख्या ८८ ६. पद्य सख्या ३८३