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________________ श्रीमद राजचन्द्र ११६' बबई, वैशाख सुदी ३, १९४६ इस उपाधिमे पडनेके बाद यदि मेरा लिंगदेहजन्यज्ञान दर्शन वैसा ही रहा हो, यथार्थ हो रहा हो तो जूठाभाई आषाढ सुदी ९ गुरुकी रातको समाधिपूर्वक इस क्षणिक जीवनका त्याग कर जायेंगे, ऐसा वह ज्ञान सूचित करता है । २२० ११७ बबई, आषाढ सुदी १०, १९४६ लिंगदेहजन्यज्ञानमे उपाधिके कारण यत्किचित् परिवर्तन मालूम हुआ । पवित्रात्मा जूठा भाई - उपर्युक्त तिथिको परन्तु दिनमे स्वर्गवासी होनेकी आज खबर मिली । इस पावन आत्माके गुणोका क्या स्मरण करें ? जहाँ विस्मृतिको अवकाश नही वहाँ स्मृति हुई मानी ही कैसे जाये ? इसका लौकिक नाम ही देहधारीरूपसे सत्य था, यह आत्मदशा के रूपमे सच्चा वैराग्य था । जिसकी मिथ्यावासना बहुत क्षीण हो गई थी, जो वीतरागका परमरागी था, ससारसे परम जुगुप्सित था, जिसके अतरमे भक्तिका प्राधान्य सदैव प्रकाशित था, सम्यक्भावसे वेदनीय कर्म वेदन करनेकी जिसकी अद्भुत समता थी, मोहनोय कर्मका प्राबल्य जिसके अतरमे बहुत शून्य हो गया था, जिसमे मुमुक्षुता उत्तम प्रकारसे दीपित हो उठी थी, ऐसा यह जूठाभाईका पवित्रात्मा आज जगतके इस भागका त्याग करके चला गया । इन सहचारियोंसे मुक्त हो गया । धर्मके पूर्णाह्लादमे आयुष्य अचानक पूर्ण किया । अरेरे | इस कालमे ऐसे धर्मात्माका अल्प जीवन हो यह कुछ अधिक आश्चर्यकारक नही है । ऐसे पवित्रात्माकी इस कालमे कहाँसे स्थिति हो ? दूसरे साथियो के ऐसे भाग्य कहाँसे हो कि ऐसे पवित्रात्माके दर्शनका लाभ उन्हे अधिक काल तक मिले ? मोक्षमार्गको देनेवाला सम्यक्त्व जिसके अतरमे प्रकाशित हुआ था, ऐसे पवित्रात्मा जूठाभाईको नमस्कार हो । नमस्कार हो । ११८ बबई, आषाढ सुदी १५, बुध, १९४६ धर्मेच्छुक भाइयो, चि॰ सत्यपरायणके स्वर्गवाससूचक शब्द भयंकर हैं । परन्तु ऐसे रत्नोका दीर्घं जीवन कालको नही पुसाता । धर्मेच्छुकके ऐसे अनन्य सहायकको रहने देना मायादेवीको योग्य नही लगा । 1 इस आत्माके इस जीवन के रहस्यमय विश्रामको कालकी प्रबल दृष्टिने खीच लिया | ज्ञानदृष्टि शोकका अवकाश नही माना जाता, तथापि उसके उत्तमोत्तम गुण वैसा करनेकी आज्ञा करते है, बहुत स्मरण होता है, ज्यादा नही लिख सकता । सत्यपरायणके स्मरणार्थं यदि हो सका तो एक शिक्षाग्रन्थ लिखनेका विचार करता हूँ । न छिज्जइ । यह पाठ पूरा लिखेंगे तो ठीक होगा । मेरी समझके अनुसार इस स्थलपर आत्माका शब्दवर्णन है "छेदा नही जाता, भेदा नही जाता", इत्यादि । "आहार, विहार और निहारका नियमित" इस वाक्यका सक्षेपार्थ इस प्रकार है जिसमे योगदशा आती है, उसमे द्रव्य आहार, विहार और निहार (शरीर के मलकी त्याग क्रिया) यह नियमित अर्थात् जैसी चाहिये वैसी, आत्माको निर्वाधक क्रियासे यह प्रवृत्ति करनेवाला । १ यह लेख श्रीमद्को दैनिक नोघका है । २. श्री आचाराग, अध्य० ३, उद्देशक ३, देखें आक २९६
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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