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________________ २६ वॉ वर्ष ३८१ वह सिद्धियोग अल्पकालमे फलित होता है। ज्ञानीपुरुषसे तो मात्र स्वाभाविक स्फुरित होकर ही फलित होता है, अन्य प्रकारसे नही । जिन ज्ञानीसे सिद्धियोग स्वाभाविक परिणामी होता है, वे ज्ञानीपुरुष, हम जो करते है वैसा और वह इत्यादि दूसरे अनेक प्रकारके चारित्रके प्रतिबंधक कारणोंसे मुक्त होते है, कि जिस कारणसे आत्माका ऐश्वर्य विशेष स्फुरित होकर मनादि योगमे सिद्धिके स्वाभाविक परिणामको प्राप्त होता है। क्वचित् ऐसा भी जानते हैं कि किसी प्रसगमे ज्ञानीपुरुपने भी सिद्धियोग परिणमित किया होता है तथापि वह कारण अत्यन्त बलवान होता है, और वह भी सपूर्ण ज्ञानदशाका कार्य नही है। हमने जो यह लिखा है, वह बहुत विचार करनेसे समझमे आयेगा। ____ हममे मार्गानुसारिता कहना सगत नही है। अज्ञानयोगिता तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नही होगी ऐसा लगता है। सम्यग्दृष्टिपन तो जरूर सभव है। किसी प्रकारका सिद्धियोग साधनेका हमने कभी भी सारी जिदगीमे अल्प भी विचार किया हो ऐसा याद नही आता, अर्थात् साधनसे वैसा योग प्रगट हुआ हो, ऐसा नही लगता । आत्माकी विशुद्धताके कारण यदि कोई वैसा ऐश्वर्य हो तो उसकी असत्ता नही कही जा सकती। वह ऐश्वर्य कुछ अशमे सभव है, तथापि यह पत्र लिखते समय इस ऐश्वर्यकी स्मृति हुई है, नही तो बहुत कालसे वैसा होना स्मरणमे नही है तो फिर उसे स्फुरित करनेकी इच्छा कभी हुई हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, यह स्पष्ट बात है। आप और हम कुछ दु.खी नही है। जो दुःख है वह रामके चौदह वपके दु.खका एक दिन भी नहीं है, पाडवोके तेरह वर्षके दुखकी एक घडी नही है, और गजसुकुमारके ध्यानका एक पल नही है, तो फिर हमे यह अत्यन्त कारण कभी भी बताना योग्य नहीं है। आपको शोक करना योग्य नही है, फिर भी करते है। जो वात आपसे न लिखी जाये वह लिखी जाती है। उसे न लिखनेके लिये हमारा इस पत्रसे उपदेश नहीं है। मात्र जो हो उसे देखते रहना, ऐसा निश्चय रखनेका विचार करें, उपयोग करें, और साक्षी रहे, यही उपदेश है। नमस्कार प्राप्त हो। ४५१ बबई, प्रथम आपाढ सुदी ९, १९४९ कृष्णदासका प्रथम विनयभक्तिरूप पत्र मिला था। उसके बाद त्रिभोवनका पत्र और फिर आपका पत्र पहुँचा । बहुत करके रविवारको पत्र लिखा जा सकेगा। सत्सगके इच्छावान जीवोके प्रति कुछ भी उपकारक देखभाल होती हो तो होने योग्य है । परन्तु अव्यवस्थाके कारण हम उन कारणोमे अशक्त होकर प्रवृति करते हैं, अत करणसे कहते है कि वह क्षमा योग्य है । यही विनती। ववई, प्रथम आपाढ सुदी १२, १९४९ ४५२ उपाधिके कारण अभी यहाँ स्थिति सभव है। यहाँ सुखवृत्ति है । दुख कल्पित है। लि. रायचदके प्रणाम ४५३ बवई, प्रथम आपाढ वदो ३, रवि १९४९ मुमुक्षुजनके परमवाधव, परमस्नेही श्री सुभाग्य, मोरवी। यहाँ समाधिका यथायोग्य अवकाश नही है। अभी कोई पूर्वोपार्जित प्रारब्ध ऐसे उदयमे रहता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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