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________________ श्रीमद राजचन्द्र जो प्रवृत्ति यहाँ उदय है, वह ऐसी है कि दूसरे द्वारसे चले जाते हुए भी छोडी नही जा सकती, वेदन करने योग्य है, इसलिये उसका अनुसरण करते है, तथापि अव्याबाध स्थितिमे जैसाका तैसा स्वास्थ्य है । ३८० आज यह आठवाँ पत्र लिखते है । वे सब आप सभी जिज्ञासुभाइयोके वारवार विचार करने के लिये लिखे गये है । चित्त ऐसे उदयवाला कभी हो रहता है । आज अनुक्रमसे वैसा उदय होनेसे, उस उदयके अनुसार लिखा है । हम सत्सग और निवृत्तिकी कामना रखते है, तो फिर आप सबको यह रखनो योग्य हो, इसमे कोई आश्चर्य नही है । हम व्यवहारमे रहते हुए अल्पारभको, अल्पपरिग्रहको प्रारब्धनिवृत्तिरूपसे चाहते हैं, महान आरभ और महान परिग्रहमे नही पडते । तो फिर आपको वैसा बर्ताव करना योग्य हो, इसमे कोई सशय करना योग्य नही है । समागम होनेके योगका नियमित समय लिखा जा सके ऐसा अभी नही सूझता । यही विनती । ४५० बबई, जेठ सुदी १५, मगल, १९४९ होय ते करे । होय ते करे ॥" -- दयाराम " जीव तुं शीद शोचना धरे ? कृष्णने करवु चित्त तुं शीद शोचना घरे ? कृष्णने करवु पूर्वकालमे जो ज्ञानीपुरुष हुए है, उन ज्ञानियोमे बहुतसे ज्ञानीपुरुष सिद्धियोगवाले हुए है, ऐसा जो लोककथन है वह सच्चा है या झूठा ? ऐसा आपका प्रश्न है, और यह सच्चा होना सम्भव है ऐसा आपअभिप्राय है । साक्षात् देखनेमे नही आता, यह विचाररूप जिज्ञासा है । कितने ही मार्गानुसारी पुरुषो और अज्ञानयोगी पुरुषोमे भी सिद्धियोग होता है । प्रायः उनके चित्तकी अत्यन्त सरलतासे अथवा सिद्धियागादिको अज्ञानयोगसे स्फुरणा देनेसे वह प्रवृत्ति करता है सम्यग्दृष्टि पुरुष कि जिनका चौथे गुणस्थानमे होना सम्भव है, वैसे ज्ञानीपुरुषोमे क्वचित् सिद्धि होती है, और क्वचित् सिद्धि नही होती । जिनमे होती है, उन्हे उसकी स्फुरणाकी प्राय इच्छा नही होती, और बहुत करके यह इच्छा तब होती है कि जब जीव प्रमादवश होता है, और यदि वैसी इच्छा हुई तो उसका सम्यक्त्वसे पतन होना सम्भव है । प्रायः पाँचवें, छट्टे गुणस्थानमे भी उत्तरोत्तर सिद्धियोगका विशेष सम्भव होता जाता है, और वहाँ भी यदि जीव प्रमादादि योगसे सिद्धिमे प्रवृत्ति करे तो प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना सम्भव है । सातवें, आठवे, नवमे और दसवे गुणस्थानमे प्राय प्रमादका अवकाश कम है । ग्यारहवें गुणस्थान मे सिद्धियोगका लोभ सभव होनेके कारण वहाँसे प्रथम गुणस्थानमे स्थिति होना संभव है । बाकी जितने सम्यक्त्वके स्थानक है, और जहाँ तक सम्यकपरिणामी आत्मा है वहाँ तक उस एक भी योगमे जीवकी प्रवृत्ति त्रिकालमे भी होना संभव नही है । सम्यग्ज्ञानी पुरुषोसे लोगोने सिद्धियोगके जो चमत्कार जाने हैं, वे सब ज्ञानी पुरुष द्वारा किये हुए नही हो सकते, वे सिद्धियोग स्वभावत परिणामको प्राप्त हुए होते है । दूसरे किसी कारणसे ज्ञानीपुरुषमे वह योग नही कहा जाता । मार्गानुसारी अथवा सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके अत्यन्त सरल परिणामसे उनके वचनानुसार कितनी ही बार होता है । जिसका योग अज्ञानपूर्वक है, उसके उस आवरणके उदय होनेपर अज्ञानका स्फुरण होकर १ भावार्थ - जीव तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा । चित्त तू किसलिये शोक करता है ? कृष्णको जो करना होगा सो करेगा ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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