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________________ १३० श्रीमद् राजचन्द्र उदयको प्राप्त होते है, उन पुरुषोकी अपेक्षा जो पुरुष शृगारमे रचे पचे पडे है, सामान्य तत्त्वज्ञानको भो नही जानते, जिनका आचार भी पूर्ण नही है, उन्हे उत्तम कहना, परमेश्वरके नामसे स्थापित करना, सत्यस्वरूपकी निन्दा करना तथा परमात्मस्वरूपको प्राप्त पुरुषोको नास्तिक कहना, यह सब उनकी कितनी अधिक कर्मकी बहुलताका सूचन करता है । परन्तु जगत मोहान्ध है, जहाँ मतभेद है वहाँ अँधेरा है, जहाँ ममत्व या राग है वहाँ सत्यतत्त्व नही है यह बात हम किसलिये न विचारें? ____ मैं एक मुख्य बात तुमसे कहता हूँ कि जो ममत्वरहित और न्याययुक्त है। वह यह है कि तुम चाहे जिस दर्शनको मानो, फिर चाहे जो तुम्हारी दृष्टिमे आये वैसे जैनदर्शनको कहो, सब दर्शनोंके शास्त्रतत्त्वको देखो उसी तरह जैनतत्त्वको भी देखो। स्वतन्त्र आत्मिक शक्तिसे जो योग्य लगे उसे अगीकार करो। मेरी या किसी दूसरेकी बातको भले एकदम तुम मान्य न करो, परन्तु तत्त्वका विचार करो। शिक्षापाठ ९९ : समाजकी आवश्यकता __ आग्लभौमिक ससारसम्बन्धी अनेक कला-कौशलमे किस कारणसे विजयको प्राप्त हए ? यह विचार करनेसे हमे तत्काल मालम होगा कि उनका बहुत उत्साह और उस उत्साहमे अनेकोका मिल जाना उनकी विजयका कारण है। कला-कौशलके इस उत्साही काममे उन अनेक पुरुषोकी खडी हुई सभा या समाजने क्या परिणाम पाया? तो उत्तरमे यह कहा जायेगा कि लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार | उनके इस उदाहरणसे उस जातिके कला-कौशलोकी खोज करनेका मैं यहाँ उपदेश नहीं करता, परन्तु यह बतलाता हूँ कि सर्वज्ञ भगवानका कहा हुआ गुप्त तत्त्व प्रमादस्थितिमे आ पड़ा है, उसे प्रकाशित करनेके लिये तथा पूर्वाचार्योंके रचे हुए महान शास्त्रोको एकत्र करनेके लिये, गच्छोके पड़े हुए मतमतान्तरको दूर करनेके लिये तथा धर्मविद्याको प्रफुल्लित करनेके लिये सदाचारी श्रीमान और धीमान दोनोको मिलकर एक महान समाजकी स्थापना करनेकी आवश्यकता है। पवित्र स्याद्वादमतके ढंके हुए तत्त्वको प्रसिद्धिमे लानेका जब तक प्रयत्न नही होता तब तक शासनकी उन्नति भी नही होगी। संसारी कलाकौशलसे लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार मिलते हैं, परन्तु इस धर्मकलाकौशलसे तो सर्व सिद्धि सम्प्राप्त होगी। महान समाजके अन्तर्गत उपसमाज स्थापित करना । साम्प्रदायिक बाडेमे बैठे रहनेकी अपेक्षा मतमतान्तर छोडकर ऐसा करना उचित है। मै चाहता हूँ कि इस कृत्यकी सिद्धि होकर जैनके अन्तर्गच्छमतभेद दूर हो, सत्य वस्तुपर मनुष्य मण्डलका ध्यान आओ और ममत्व जाओ। शिक्षापाठ १०० : मनोनिग्रहके विघ्न वारवार जो बोध करनेमे आया है उसमेसे मुख्य तात्पर्य यह निकलता है कि आत्माको तारो और तारनेके लिये तत्त्वज्ञानका प्रकाश करो तथा सत्शीलका सेवन करो। इसे प्राप्त करनेके लिये जो-जो मार्ग बतलाये है वे सब मार्ग मनोनिग्रहके अधीन है। मनोनिग्रहके लिये लक्ष्यकी विशालता करना यथोचित है। इसमे निम्नलिखित दोष विघ्नरूप है .१ आलस्य ७ अकरणीय विलास २ अनियमित निद्रा ८ मान ३ विशेष आहार ९ मर्यादासे अधिक काम ४ उन्माद प्रकृति १० आत्मप्रशसा ५ माया प्रपच ११ तुच्छ वस्तुसे आनन्द ६. अनियमित काम १२. रसगारवलुब्धता
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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