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________________ श्रीमद राजचन्द्र सत्सगसे डूबा नही जाता, ऐसी सत्सगमे चमत्कृति है । निरतर ऐसे निर्दोप समागम मे माया लेकर आये भी कौन ? कोई दुर्भागी ही, और वह भी असंभव है । सत्सग आत्माका परम हितैषी औषध है । ७८ शिक्षापाठ २५ : परिग्रहको मर्यादित करना जिस प्राणीको परिग्रहकी मर्यादा नही है, वह प्राणी सुखी नही है । उसे जो मिला वह कम है; क्योकि उसे जितना मिलता जाये उतनेसे विशेष प्राप्त करनेकी उसकी इच्छा होती है । परिग्रहकी प्रबलतामे जो कुछ मिला हो उसका सुख तो भोगा नही जाता, परन्तु जो होता है वह भी कदाचित् चला जाता है । परिग्रहसे निरन्तर चलविचल परिणाम और पापभावना रहती है, अकस्मात् योगसे ऐसी पापभावनामे यदि आयु पूर्ण हो जाये तो बहुधा अधोगतिका कारण हो जाता है । सपूर्ण परिग्रह तो मुनीश्वर त्याग सकते हैं, परन्तु गृहस्थ उसकी अमुक मर्यादा कर सकते हैं । मर्यादा हो जानेसे उससे अधिक परिग्रहकी उत्पत्ति नही है, और इसके कारण विशेष भावना भी बहुधा नही होती, और फिर जो मिला है उसमे सन्तोप रखनेकी प्रथा पडती है, जिससे सुखमे समय वीतता है । न जाने लक्ष्मी आदिमे कैसी विचित्रता है कि ज्यो- ज्यो लाभ होता जाता है त्यो त्यो लोभ बढता जाता है । धर्मसंबधी कितना ही ज्ञान होने पर, धर्मकी दृढता होने पर भी परिग्रहके पाशमे पडा हुआ पुरुप कोई विरल ही छूट सकता है, वृत्ति इसीमे लटकी रहती है, परन्तु यह वृत्ति किसी कालमे सुखदायक या आत्महितैषी नही हुई है । जिन्होंने इसकी मर्यादा कम नही की वे बहुत दु खके भोगी हुए हैं । छ खंडोको जीतकर आज्ञा मनानेवाले राजाधिराज चक्रवर्ती कहलाते हैं । इन समर्थ चक्रवर्तियो सुभूम नामक एक चक्रवर्ती हो गया है। उसने छ' खड जीत लिये इसलिये वह चक्रवर्ती माना गया, परन्तु इतनेसे उसकी मनोवाछा तृप्त न हुई, अभी वह प्यासा रहा । इसलिये धातकी खडके छ. खड जीतने का उसने निश्चय किया। “सभी चक्रवर्ती छ खड जीतते है, और में भी इतने ही जीत, इसमे महत्ता कौनसी ? बारह खड जीतनेसे मैं चिरकाल तक नामाकित रहूँगा, और उन खडोपर जीवनपर्यंत समर्थ आज्ञा चला सकूँगा ।" इस विचारसे उसने समुद्रमे चर्मरत्न छोड़ा, उसपर सर्व सैन्यादिका आधार था । चर्मरत्नके एक हजार देवता सेवक कहे जाते है, उनमे से प्रथम एकने विचार किया कि न जाने कितने ही वर्षों मे इससे छुटकारा होगा ? इसलिये देवागनासे तो मिल आऊँ, ऐसा सोचकर वह चला गया, फिर दूसरा गया, तीसरा गया, और यो करते-करते हजारके हजार देवता चले गये । तव चर्मरत्न डूब गया, अश्व, गज और सर्व सैन्यसहित सुभूम नामका वह चक्रवर्ती भी डूब गया । पापभावनामे और पापभावनामे मरकर वह अनन्त दु खसे भरे हुए सातवे तमतमप्रभा नरकमे जाकर पड़ा। देखो । छ. खडका आधिपत्य तो भोगना एक ओर रहा, परन्तु अकस्मात् और भयकर रीतिसे परिग्रहकी प्रीति से इस चक्रवर्तीकी मृत्यु हुई, तो फिर दूसरेके लिये तो कहना ही क्या ? परिग्रह पापका मूल है, पापका पिता है, अन्य एकादश व्रतको महादूपित कर दे ऐसा इसका स्वभाव है । इसलिये आत्महितैषीको यथासभव इसका त्याग करके मर्यादापूर्वक आचरण करना चाहिये । शिक्षापाठ २६ : तत्त्वको समझना • जिन्हे शास्त्रोके शास्त्र मुखाग्र हो, ऐसे पुरुष बहुत मिल सकते हैं परतु जिन्होने थोडे वचनोपर प्रौढ़ और विवेकपूर्वक विचार करके शास्त्र जितना ज्ञान हृदयगत किया हो, ऐसे पुरुष मिलने दुर्लभ है । तत्त्वको पा जाना यह कोई छोटी बात नही है, कूदकर समुद्र लाँघ जाना है । अर्थ अर्थात् लक्ष्मी, अर्थ अर्थात् तत्त्व और अर्थ शब्द बहुत अर्थ होते हैं । परंतु यहाँ 'अर्थ' अर्थात् 'तत्त्व' अर्थात् शब्दका दूसरा नाम । इस प्रकार 'अर्थ' इस विषयपर कहना है । जो निग्रंथ-प्रवचनमे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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