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________________ १७ वॉ वर्ष ७९ आये हुए पवित्र वचनोंको मुखाग्र करते हैं, वे अपने उत्साहके बलसे सत्फलका उपार्जन करते हैं, परंतु यदि उनका मर्म पाया हो तो इससे वे सुख, आनन्द, विवेक और परिणाममे महान फल पाते है । अनपढ पुरुष सुन्दर अक्षर और खीची हुई मिथ्या लकीरें इन दोनोंके भेदको जितना जानता है, उतना ही मुखपाठी अन्य ग्रथ-विचार और निर्ग्रथ प्रवचनको भेदरूप मानता है, क्योकि उसने अर्थपूर्वक निग्रंथ वचनामृतको धारण नही किया है और उस पर यथार्थ तत्त्व-विचार नही किया है । यद्यपि तत्त्वविचार करनेमे समर्थ बुद्धिप्रभावकी आवश्यकता है, तो भी कुछ विचार कर सकता है, पत्थर पिघलता नही तो भो पानीसे भीग जाता है । इसी प्रकार जो वचनामृत कंठस्थ किये हो, वे अर्थ सहित हो तो बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, नही तो तोतेवाला रामनाम । तोतेको कोई परिचयसे रामनाम कहना सिखला दे, परन्तु तोतेकी बला जाने कि राम अनार है या अगूर । सामान्य अर्थके समझे बिना ऐसा होता है । कच्छी वैश्योका एक दृष्टात कहा जाता है, वह कुछ हास्य्युक्त जरूर है परन्तु इससे उत्तम शिक्षा मिल सकती है । इसलिये उसे यहाँ कहता हूँ । कच्छके किसी गाँव मे श्रावक धर्मको पालते हुए रायसी, देवसी और खेतसी नाम के तीन ओसवाल रहते थे । वे सध्याकाल और प्रात कालमे नियमित प्रतिक्रमण करते थे । प्रात कालमे रायसी और सध्या - कालमे देवसी प्रतिक्रमण कराते थे । रात्रिसबधी प्रतिक्रमण रायसी कराता था और रात्रिके सबधसे, 'रायसी पडिक्कमणु ठायमि' इस तरह उसे बुलवाना पडता था । इसी तरह देवसीको दिनका सबध होनेसे 'देवसी पडिक्कमणु ठायमि' ऐसा बुलवाना पडता था । योगानुयोगसे बहुतों के आग्रहसे एक दिन सध्या - कालमे खेतसीको प्रतिक्रमण बुलवानेके लिये बैठाया । खेतसी ने जहाँ 'देवसी पडिक्कमणुं ठायमि', ऐसा आया, वहाँ 'खेतसी पडिक्कमणु ठायमि' यह वाक्य लगा दिया। यह सुनकर सब हास्यग्रस्त हो गये और पूछा, ऐसा क्यो ? खेतसी बोला, "क्यो, इसमे क्या हो गया ?" वहाँ उत्तर मिला, 'खेतसी पडिक्कमण ठायमि' ऐसा आप क्यो बोलते हैं ? खेतसीने कहा, “मैं गरीब हूँ इसलिये मेरा नाम आया कि तुरन्त ही तकरार खड़ी कर दी, परन्तु रायसी और देवसीके लिये तो किसी दिन कोई बोलता भी न था । ये दोनो क्यो ‘रायसी पडिक्कमणु ठायंमि' और 'देवसी पडिक्कमणु ठायमि' ऐसा कहते हैं, तो फिर मैं 'खेतसी पडिक्कमणु ठायमि' यो क्यो न कहूँ ?" इसकी भद्रिकताने तो सबका मन बहलाया, बादमे उसे प्रतिक्रमणका कारण सहित अर्थ समझाया, जिससे खेतसी अपने रटे हुए प्रतिक्रमणसे शर्मिन्दा हुआ । यह तो एक सामान्य वार्ता है, परन्तु अर्थकी खूबी न्यारी है । तत्त्वज्ञ उसपर बहुत विचार कर सकते है। बाकी तो गुड जैसे मीठा ही लगता है वैसे निर्ग्रन्थ- वचनामृत भी सत्फल ही देते हैं । अहो | परन्तु मर्म पानेको वातकी तो बलिहारी ही है । शिक्षापाठ २७ : यत्ना जैसे विवेक धर्म का मूलतत्त्व है, वैसे हो यत्ना धर्मका उपतत्त्व है । विवेकरो धर्मतत्त्वको ग्रहण किया जाता है और यत्नासे वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है । पाँच समितिरूप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ हैं, परन्तु गृहस्थाश्रमोसे वह सर्व भावसे पाली नही जा सकती, फिर भी जितने भावाशमे पाली जा सके उतने भावाशमे भी असावधानीसे वे पाल नही सकते। जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म दयाके प्रति जहाँ बेपरवाहो है वहाँ बहुत दोषसे पाली जा सकती है । इसका कारण यत्नाकी न्यूनता है । उतावली ओर वेगभरी चाल, पानी छानकर उसको जीवानी रखनेकी अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधनका विना झाडे, विना देखे उपयोग, अनाजमे रहे हुए सूक्ष्म जन्तुओकी अपूर्ण देखभाल, पोछे-मांजे बिना रहने दिये हुए वरतन, अस्वच्छ रखे हुए कमरे, आँगनमे पानीका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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