SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद राजचन्द्र गिराना, जूठनका रख छोडना, पटरेके बिना खूब गरम थालीका नीचे रखना, इनसे अपनेको अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते है, और ये महापापके कारण भी हो जाते है। इसलिये कहनेका आशय यह है कि चलनेमे, बैठनेमे, उठनेमे. जीमनेमे और दूसरी प्रत्येक क्रियामे यत्नाका उपयोग करना चाहिये । इससे द्रव्य एव भाव दोनो प्रकारसे लाभ है। चाल धीमो और गम्भीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, पानी विधिसहित छनवाना, काष्ठादि ईंधन झाड़कर डालना, ये कुछ हमारे लिये असुविधाजनक कार्य नही हैं और इनमे विशेष वक्त भी नहीं जाता। ऐसे नियम दाखिल कर देनेके बाद पालने मुश्किल नही है । इनमे विचारे असख्यात निरपराधी जन्तु बचते है। प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावकका कर्तव्य है। शिक्षापाठ २८ : रात्रिभोजन अहिसादिक पच महाव्रत जैसा भगवानने रात्रिभोजनत्याग व्रत कहा है। रात्रिमे जो चार प्रकारका आहार है वह अभक्ष्यरूप है। जिस प्रकारका आहारका रग होता है उम प्रकारके तमस्काय नामके जीव उस आहारमे उत्पन्न होते हैं। रात्रिभोजनमे इसके अतिरिक्त भी अनेक दोप।। रात्रिमे भोजन करनेवालेको रसोईके लिये अग्नि जलानी पडती है, तव समीपकी भीतपर रहे हुए निरपराधी सूक्ष्म जन्तु नष्ट होते हैं। इंधनके लिये लाये हुए काष्ठादिकमे रहे हुए जन्तु रात्रिमे न दीखनेसे नष्ट होते हैं, तथा सपक विषका, मकडीकी लारका और मच्छरादिकं सूक्ष्म जन्तुओका भी भय रहता है। कदाचित् यह कुटुम्ब आदिको भयङ्कर रोगका कारण भी हो जाता है। पुराण आदि मतोमे भो सामान्य आचारके लिये रात्रिभोजनके त्यागका विधान है, फिर भी उनमें परम्परागत रूढिसे रात्रिभोजन घुस गया है, परन्तु ये निषेधक तो है ही। शरीरके अन्दर दो प्रकारके कमल है, वे सूर्यास्तसे सङ्कचित हो जाते हैं; इसलिये रात्रिभोजनमें सूक्ष्म जीवोका भक्षण होनेरूप अहित होता है, जो महारोगका कारण है, ऐसा कई स्थलोपर आयुर्वेदका भी मत है। सत्पुरुष तो दो घडी दिन रहनेपर व्यालू करते है, और दो घडी दिन चढनेसे पहले किसी भी प्रकारका आहार नही करते। रात्रिभोजनके लिये विशेष विचार मुनि-समागममे या शास्त्रसे जानना चाहिये। इस सम्बन्धमे बहुत सूक्ष्म भेद जानने आवश्यक है। रात्रिमे चारो प्रकारके आहारका त्याग करनेसे महान फल है, यह जिन-वचन है । शिक्षापाठ २९ : सर्व जीवोंको रक्षा-भाग १ दया जैसा एक भी धर्म नही है। दया ही धर्मका स्वरूप है। जहाँ दया नही वहाँ धर्म नही । जगतीतलमे ऐसे अनर्थकारक धर्ममत विद्यमान है जो, जीवका हनन करनेमे लेश भी पाप नही होता, बहुत तो मनुष्यदेहकी रक्षा करो, ऐसा कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये धर्ममतवाले जनूनी और मदान्ध हैं, और दयाका लेश स्वरूप भी नही जानते। यदि ये लोग अपने हृदयपटको प्रकाशमे रखकर विचार करें तो उन्हे अवश्य माल्म होगा कि एक सूक्ष्मसे सूक्ष्म जन्तुके हननमे भी महापाप है। जैसा मुझे अपना आत्मा प्रिय है, वैसा उसे भी अपना आत्मा प्रिय है। मै अपने थोड़ेसे व्यसनके लिये या लाभके लिये ऐसे असख्यात जीवोका वेधडक हनन करता है, यह मुझे कितने अधिक अनन्त दुखका कारण होगा? उनमे बुद्धिका वीज भी न होनेसे वे ऐसा विचार नही कर सकते। वे दिन-रात पाप ही पापमे मग्न रहते है। वेद और वैष्णव आदि पन्थोमे भी सूक्ष्म दया सम्बन्धी कोई विचार देखनेमें नही आता, तो भी ये दयाको
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy