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________________ १७वा वर्ष भगवानने जो पाँच महाव्रत प्रणीत किये हैं, उनमेसे प्रथम महाव्रतकी रक्षाके लिये शेष चार व्रत वाडरूप हैं, और उनमे भी पहली बाड सत्य महाव्रत है । इस सत्यके अनेक भेदोको सिद्धातसे श्रवण करना आवश्यक है। शिक्षापाठ २४ सत्संग सत्संग सर्व सुखका मूल है। "सत्सग मिला' कि उसके प्रभावसे वाछित सिद्धि हो ही जाती है। चाहे जैसा पवित्र होनेके लिये सत्सग श्रेष्ठ साधन है। सत्संगकी एक घडी जो लाभ देती है वह लाभ कुसंगके एक करोड वर्ष भी नही दे सकते, अपितु वे अधोगतिमय महापाप कराते हैं, तथा आत्माको मलिन करते है । सत्संगका सामान्य अर्थ'यह कि उत्तमका सहवास । जहाँ अच्छी हवा नही आती वहाँ रोगकी वृद्धि होती है, वैसे जहाँ सत्संग नही वहाँ आत्मरोग बढता है । दुगंधसे तग आकर जैसे नाक पर वस्त्र रख लेते हैं, वैसे ही कुसंगका सहवास बंद करना आवश्यक है। ससार भी एक प्रकारका संग है, और वह अनत कुसगरूप एव दुखदायक होनेसे त्याग करने योग्य है। चाहे जिस प्रकारका सहवास हो परतु जिससे आत्मसिद्धि नही है वह सत्सग नही है । आत्माको जो सत्यका रग चढ़ाये वह सत्सग है । जो मोक्षका मार्ग बताये वह मैत्री है। उत्तम शास्त्रमे निरतर एकाग्न रहना यह भी सत्सग है, सत्पुरुषोका समागम भी सत्सग है। मलिन वस्त्रको जैसे सावुन तथा जल स्वच्छ करते हैं वैसे आत्माकी मलिनताको, शास्त्रबोध और सत्पुरुषोका समागम दूर करके शुद्ध करते है। जिसके साथ सदा परिचय रहकर राग, रग, गान, तान और स्वादिष्ट भोजन सेवित होते हो वह तुम्हे चाहे जैसा प्रिय हो, तो भी निश्चित मानो कि वह सत्सग नही प्रत्युत कुसग है । सत्सगसे प्राप्त हुआ एक वचन अमूल्य लाभ देता है। तत्त्वज्ञानियोने मुख्य बोध यह दिया है कि सर्वसगका परित्याग करके, अंतरमे रहे हुए सर्व विकारसे भी विरक्त रहकर एकातका सेवन करो। इसमे सत्सगकी स्तुति आ जाती है। सर्वथा एकात तो ध्यानमे रहना या योगाभ्यासमे रहना यह है, परंतु समस्वभावीका समागम, जिसमेसे एक ही प्रकारकी वर्तनताका प्रवाह निकलता है वह, भावसे एक ही रूप होनेसे बहुत मनुष्योके होने पर भी और परस्परका सहवास होनेपर भी एकातरूप ही है और ऐसा एकात मात्र सत समागममे रहा है। कदाचित् कोई ऐसा विचार करेगा कि विषयीमडल मिलता है वहाँ समभाव होनेसे उसे एकात क्यो न कहा जाये ? इसका समाधान तत्काल हो जाता है कि वे एकस्वभावी नही होते । उनमे परस्पर स्वार्थबुद्धि और मायाका अनुसधान होता है, और जहाँ इन दो कारणोसे समागम होता है वह एकस्वभावी या निर्दोष नही होता। निर्दोष और समस्वभावी समागम तो परस्पर शात मुनीश्वरोका है, तथा धर्म-ध्यानप्रशस्त अल्पारभी पुरुषोका भी कुछ अशमे है। जहाँ स्वार्थ और माया-कपट ही हैं वहां समस्वभावता नही है और वह सत्सग भी नही है। सत्सगसे जो सुख, आनन्द मिलता है वह अति स्तुति-पात्र है । जहाँ शास्त्रोके सुन्दर प्रश्न होते हो, जहाँ उत्तम ज्ञान-ध्यानकी सुकथा होती हो, जहाँ सत्पुरुषोके चरित्र पर विचार किया जाता हो, जहाँ तत्त्वज्ञानके तरगकी लहरें उठती हो, जहाँ सरल स्वभावसे सिद्धातविचारकी चर्चा होती हो और जहाँ मोक्षजनक कथनपर पुष्कल विवेचन होता हो, ऐसा सत्सग महादुर्लभ है। कोई यो कहे कि सत्सगमडलमे क्या कोई मायावी नही होता ? तो इसका समाधान यह हे-जहां माया और स्वार्थ होता है वहाँ सत्सग ही नहीं होता | राजहसको सभामे काग देखावसे कदाचित् न भांपा जाये तो रागसे अवश्य भांपा जायेगा, मौन रहा तो मुखमुद्रासे ताडा जायेगा, परन्तु वह छिपा नही रह पायेगा। उसी प्रकार मायावी स्वार्थसे सत्संगमे जाकर क्या करेंगे? वहाँ पेट भरनेकी बात तो होती नही। दो घडो वहाँ जाकर विधाति लेते हो तो भले लें कि जिससे रग लगे, और रग न लगे, तो दूसरी बार उनका आगमन नही होगा । जैसे पृथ्वो पर तेरा नही जाता, वैसे ही १. दि० आ० पाठा०-'सत्सगका लाभ मिला'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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