SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३८ श्रीमद राजचन्द्र वह असोच्या केवली' । अर्थात् असोच्या केवलीका यह प्रसंग सुनकर कोई, जो शाश्वत मार्ग चला आया है, उसका निषेध करे, यह आशय नही, ऐसा निवेदन किया है। __किसी तीन आत्मार्थीको कदाचित् सद्गुरुका ऐसा योग न मिला हो, और उसे अपनी तीव्र कामना और कामनामे ही निजविचारमे सलग्न होनेसे, अथवा तीव्र आत्मार्थके कारण निजविचारमे लीन होनेसे आत्मज्ञान हुआ हो तो वह सद्गुरुके मार्गका निषेधक जीव न हो तभी हुआ हो और 'मुझे सद्गुरुसे ज्ञान नही मिला, इसलिये मैं बडा हूँ' ऐसा भाव न रखनेसे हुआ हो, ऐसा विचार कर विचारवान जीवको जिससे शाश्वत मार्गका लोप न हो ऐसे वचन प्रकाशित करने चाहिये। एक गाँवसे दूसरे गाँव जाना हो और जिसने उस गॉवका मार्ग न देखा हो, ऐसा कोई पचास वर्षका पुरुप हो और लाखो गॉव देख आया हो, उसे भी उस मार्गका पता नही चलता, और किसीको पूछनेपर ही मालूम होता है, नही तो वह भूल खा जाता है, और उस मार्गका जानकार दस वर्षका बालक भी उसे मार्ग दिखाता है, जिससे वह पहुंच सकता है, ऐसा लोकमे अथवा व्यवहारमे भी प्रत्यक्ष है, इसलिये जो आत्मार्थी हो, अथवा जिसे आत्मार्थकी इच्छा हो उसे सद्गुरुके योगसे तरनेके अभिलाषी जीवका जिससे कल्याण हो उस मार्गका लोप करना योग्य नहीं है, क्योकि उससे सर्व ज्ञानीपुरुषोकी आज्ञाका लोप करने जैसा होता है। पूर्वकालमे सद्गुरुका योग तो अनेक बार हुआ है, फिर भी जीवका कल्याण नही हुआ, जिससे सद्गुरुके उपदेशकी ऐसी कुछ विशेषता दिखायी नही देती, ऐसी आशका हो तो उसका उत्तर दूसरे ही पदमे कहा है कि जो अपने पक्षको छोडकर सद्गुरुके चरणका सेवन करे, वह परमार्थको पाता है। अर्थात् पूर्वकालमे सद्गुरुका योग होनेकी वात सत्य है, परन्तु वहाँ जीवने उसे सद्गुरु नही जाना, अथवा उसे नही पहचाना, उसकी प्रतीति नही की, और उसके पास अपने मान और मत नही छोडे, और इसलिये सद्गुरुका उपदेश परिणमित नही हुआ, और परमार्थकी प्राप्ति नहीं हुई। इस तरह यदि जीव अपने मत अर्थात् स्वच्छद और कुलधर्मका आग्रह दूर करके सदुपदेशको ग्रहण करनेका अभिलाषी हुआ होता तो अवश्य परमार्थको पाता। यहाँ असद्गुरु द्वारा दृढ कराये हुए दुर्बोधसे अथवा मानादिकी तीव्र कामनासे ऐसी आशंका भी हो सकती है कि कई जीवोका पूर्वकालमे कल्याण हुआ है, और उन्हे सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना कल्याणकी प्राप्ति हुई है, अथवा असद्गुरुसे भी कल्याणकी प्राप्ति होती है, असद्गुरुको स्वय भले मार्गकी प्रतीति नही है, परन्तु दूसरेको वह प्राप्त करा सकता है अर्थात् दूसरा कोई उसका उपदेश सुनकर उस मार्गकी प्रतीति करे, तो वह परमार्थको पाता है। इसलिये सद्गुरुके चरणका सेवन किये बिना भी परमार्थकी प्राप्ति होती है, ऐसी आशंकाका समाधान करते है : यद्यपि कई जीव स्वय विचार करते हुए उद्बुद्ध हुए है, ऐसा शास्त्रमे वर्णन है, परन्तु किसी स्थलपर ऐसा दृष्टात नही कहा है कि अमुक जीव असद्गुरु द्वारा उद्बुद्ध हुए है। अव कई जीव स्वय विचार करते हुए उद्बुद्ध हुए है, ऐसा कहा है, उसमे शास्त्रोके कहनेका ऐसा हेतु नही है कि सद्गुरुकी आज्ञासे चलनेसे जीवका कल्याण होता है ऐसा हमने कहा है, परन्तु यह बात यथार्थ नहीं है, अथवा सद्गुरुकी आज्ञाकी जीवको कोई जरूरत नहीं है ऐसा कहनेके लिये भी वैसा नही कहा । तथा जो जीव अपने विचारसे स्वय वोधको प्राप्त हुए हैं, ऐसा कहा है, वह भी वर्तमान देहमे अपने विचारसे अथवा बोधसे उबुद्ध हुए ऐसा कहा है, परन्तु पूर्वकालमे वह विचार अथवा वोध सद्गुरुने उनके सन्मुख किया है, जिससे १ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy