SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजचन्द्र मानायाणकारी है, तथापि दुनरो के प्रति बेसी कल्याणकारक होनेमे कुछ ३. को उदित नर ऊर्मियों आपको बहुत बार नमागममे बतायी है। सुनकर उन्हें कुछ ने की दा होती हुई देखनेमे आयो है । पुन अनुरोध है कि जिन जिन स्थलोमे उन उग न्यलोम जानेपर पुन पुन उनका अधिक स्मरण अवश्य कीजियेगा। । आत्मा है। २ वह बचा हुआ है। ३ वह कर्मका कर्ता है। ४ वह कर्मका भोक्ता है। ५ मोक्षका उपाय है। आत्मा नाच सकता है। नो छ महा प्रवचन ह उनका निरतर शोधन करे। दगरेको विडवनाका अनुग्रह न करके अपना अनुग्रह चाहनेवाला जय नही पाता ऐसा प्राय होता निये चाहता है कि आपने स्वात्माके अनुगहमे दृष्टि रखी हे उसकी वृद्धि करते रहिये, और उससे -17 परका अनुगह भी कर सकेंगे। नि हो जिसकी अस्थि और धर्म हो जिसको मज्जा है, धर्म ही जिसका रुधिर है, धर्म ही जिसका जामिप , धर्म ही जिनकी त्वचा हे, धर्म ही जिसकी इद्रियां हैं, धर्म ही जिमका कर्म हे, धर्म ही जिसका नटना ह, धर्म ही जिसका वैटना है, धर्म ही जिसका उठना है, धर्म ही जिसका खडा रहना है, धर्म ही जिगता यायन हे, धर्म ही जिसकी जागृति है, धर्म ही जिसका आहार है, धर्म ही जिमका विहार है, धर्म ही जिनका निहार [ 1 ] है, धर्म हो जिसका विकल्प है, धर्म ही जिसका सकल्प है, धर्म हो जिसका सर्वस्व ने पुरपको पाप्ति दुर्लभ है, और वह मनुप्यदेहमे परमात्मा है । इन दशाको क्या हम नहीं चाहते ? पात, नवापि प्रमाद और जसत्संगके आटे आनेसे उसमे दृष्टि नहीं देते। आत्मभावको वृद्धि कौजिये, और देहभावको कम कीजिये । वि० रायचदके यथोचित । १३१ जेतपर (मोरबी), प्रथम भादो वदी ५, बुध, १९४६ र माया, गानीय पाठ सम्बन्धी दोनोके अर्थ मझे तो ठीक ही लगते हैं। बालगीवोकी अपेक्षासे काम किया गया जथं हिलता है, मुमुक्षुके लिये आपका कल्पित अर्थ हितकारक है, सतोके मार,मनुप्प ज्ञान दिये प्रगान करें उनके लिये उनम्बलपर प्रत्यास्यानको दु प्रत्या. पता है। यदि पवायोग्य ज्ञान की प्राप्ति न हो तो जो प्रत्यारयान किये हो वे देव माम को अगनत ोते हैं। इसलिये उन्हें दु प्रत्याख्यान कहा है। परन्तु इस स्थलपर ..iii inान ने सोनी पलारलेला रेनु नायंकर देवन्त हो नहीं । प्रत्याख्यान आदि मनुष्य मिला, 37नी और मायंदेश निम मिलता है, तो फिर ज्ञान की प्राप्ति होनी ' लिलामो मानमती मगनी चाहिये। वि० गपदके वोनित।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy