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श्रीमद राजचन्द्र पहले गणपति आदिकी स्तुति की है, तथा बादमे जगतके पदार्थोंका आत्मरूपसे वर्णन करके उपदेश दिया है, तथा उसमे वेदातकी मुख्यता वर्णित है, इत्यादिसे कुछ भी भय न पाते हुए अथवा विकल्प न करते हुए, ग्रन्थकर्ताके आत्मार्थसबधी विचारोका अवगाहन करना योग्य है । आत्मार्थके विचारनेमे उससे क्रमश सुगमता होती है।
श्री देवकरणजीको व्याख्यान करना पड़ता है, उससे जो अभाव आदिका भय रहता है, वह सभव है।
जिस जिसने सद्गुरुमे तथा उनकी दशामे विशेषता देखी है, उस उसको प्रायः तथारूप प्रसंग जैसे प्रसगोमे अहभावका उदय नही होता, अथवा तुरत शात हो जाता है। उस अहभावको यदि पहलेसे जहरके समान प्रतीत किया हो, तो पूर्वापर उसका सम्भव कम होता है। कुछ अन्तरमे चातुर्य आदि भावसे, सूक्ष्म परिणतिसे भी कुछ मिठास रखी हो, तो वह पूर्वापर विशेषता प्राप्त करती है; परन्तु वह जहर ही है, निश्चयसे जहर ही है, स्पष्ट कालकूट जहर है, उसमे किसी तरहसे सशय नही है, और सशय हो तो उस सशयको मानना नही है, उस सशयको अज्ञान ही जानना है, ऐसा तीव्र खारापन कर डाला हो, तो वह अहभाव प्राय जोर नही कर सकता । उस अहभावको रोकनेसे क्वचित् निरहभाव हुआ, उसका फिरसे अहंभाव हो जाना सम्भव है, उसे भी पहलेसे जहर, जहर ओर जहर मानकर प्रवृत्ति की गई हो तो आत्मार्थको बाधा नहीं होती।
आप सर्व मुमुक्षुओको यथाविधि नमस्कार ।
७१७ आणद, आसोज सुदी ३, शुक्र, १९५२ आत्मार्थी भाई श्री 'मोहनलालके प्रति, डरबन ।
आपका लिखा हुआ पत्र मिला था। इस पत्रसे संक्षेपमे उत्तर लिखा है ।
नातालमे रहनेसे आपको बहुतसी सवत्तियोने विशेषता प्राप्त की है, ऐसो प्रतीति होती है । परन्तु आपकी उस तरह प्रवृत्ति करनेकी उत्कृष्ट इच्छा उसमे हेतुभूत है। राजकोटकी अपेक्षा नाताल ऐसा क्षेत्र अवश्य है कि जो कई तरहसे आपको वृत्तिको उपकारक हो सकता है, ऐसा माननेमे हानि नही है । क्योकि आपकी सरलताकी रक्षा करनेमे जिससे निजी विघ्नोका भय रह सके ऐसे प्रपंचमे अनुसरण करनेका दबाव नातालमे प्रायः नही है। परन्तु जिसकी सद्वृत्तियाँ विशेष बलवान न हो अथवा निर्बल हो, और उसे इग्लैंड आदि देशमे स्वतत्ररूपसे रहनेका हो तो वह अभक्ष्य आदिमे दूपित हो जाये ऐसा लगता है। जैसे आपको नाताल क्षेत्रमे प्रपचका विशेष योग न होनेसे आपकी सद्वत्तियोने विशेषता प्राप्त की है, वैसे राजकोट जैसे स्थानमे होना कठिन है, यह यथार्थ है, परन्तु किसी अच्छे आर्यक्षेत्रमे सत्सग आदिके योगमे आपकी वृत्तियाँ नातालकी अपेक्षा भी अधिक विशेषता प्राप्त करती, यह सम्भव है। आपकी वृत्तियाँ देखते हुए आपको नाताल अनार्यक्षेत्ररूपसे असर करे, ऐसी मेरी मान्यता प्राय नही है । परन्तु वहाँ प्राय. सत्संग आदि योगकी प्राप्ति न होनेसे कुछ आत्मनिराकरण न हो पाये, तद्रूप हानि मानना कुछ विशेष योग्य लगता है।
यहाँसे 'आर्य आचार-विचार'के सुरक्षित रखनेके सम्बन्धमे लिखा था वह ऐसे भावार्थमे लिखा था:-'आर्य आचार' अर्थात् मुख्यत दया, सत्य, क्षमा आदि गुणोका आचरण करना, और 'आर्य विचार' अर्थात् मुख्यत आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, वर्तमान काल तक उस स्वरूपका अज्ञान, तथा उस अज्ञान
१. महात्मा गांधीजी।