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________________ २६ वॉ वर्ष ३८७ तो इसमे मात्र आँखकी तृप्ति, और मनकी इच्छा तथा कल्पित मान्यताके सिवाय दूसरा कुछ नही है । तथापि इसमे केवल आँखकी तृप्तिरूप करामात के लिये और दुर्लभ प्राप्तिके कारण जीव उसका अद्भुत माहात्म्य बताते है, और जिसमे आत्मा स्थिर रहता है, ऐसा जो अनादि दुर्लभ सत्सगरूप साधन है, उसमे कुछ आग्रह - रुचि नही है, यह आश्चर्य विचारणीय है । बम्बई, श्रावण सुदी १५, रवि, १९४९ परमस्नेही श्री सोभाग, यहाँ कुशलक्षेम है । यहाँसे अब थोडे दिनोमे मुक्त हुआ जाये तो ठीक, ऐसा मनमे रहता है । परन्तु कहाँ जाना यह अभी तक मनमे आ नही सका । आपका और गोसलिया आदिका आग्रह सायला की तरफ आनेमे रहता है, तो वैसा करनेमे कुछ दुख नही है, तथापि आत्माको यह बात अभी नही सूझती । ४६३ प्राय आत्मामे यही रहा करता है कि जब तक इस व्यापारप्रसगमे कामकाज करना रहा करे तब तक धर्म-कथादिके प्रसगमे और धर्मके जानकारके रूपमे किसी प्रकारसे प्रगटरूपमे न आया जाये, यह यथायोग्य प्रकार है । व्यापार - प्रसगमे रहते हुए भी जिसका भक्तिभाव रहा करता है, उसका प्रसग भी ऐसे प्रकारमे करना योग्य है कि जहाँ आत्मामे जो उपर्युक्त प्रकार रहा करता है, उस प्रकारको बाधा न हो । जिनेन्द्रके कहे हुए मेरु आदिके सम्बन्धमे तथा अग्रेजोकी कही हुई पृथिवी आदिके सम्बन्धमे समागम - प्रसगमे बातचीत करियेगा । हमारा मन बहुत उदास रहता है और प्रतिबन्ध इस प्रकारका रहता है कि उस उदासीको एकदम गुप्त जैसी करके असह्य ऐसे व्यापारादि प्रसगमे उपाधियोगका वेदन करना पड़ता है, यद्यपि वास्तविकरूपसे तो आत्मा समाधिप्रत्ययी है । लि०- प्रणाम । ४६४ बम्बई, श्रावण वदी ४, बुध, १९४९ थोडे समयके लिये बम्बईमे प्रवृत्तिसे अवकाश लेनेका विचार सूझ आनेसे दो-एक जगह लिखने मे आया था, परन्तु यह विचार तो थोडे समयके लिये किसी निवृत्तिक्षेत्रमे स्थिति करनेका था । ववाणिया या काठियावाडकी तरफको स्थितिका नही था । अभी वह विचार निश्चित अवस्थामे नही आया है । प्राय इस पखवारेमे और गुजरातकी तरफके किसी एक निवृत्तिक्षेत्रके सम्बन्धमे विचार आना सम्भव है । विचारके व्यवस्थित हो जानेपर लिखकर सूचित करूँगा । यही विनती । सवको प्रणाम प्राप्त हो । बम्बई, श्रावण वदी ५, १९४९ ४६५ జా परमस्नेही श्री सोभाग, यहाँ कुशलक्षेम समाधि है । थोडे दिनके लिये मुक्त होनेका जो विचार सूझा था, वह अभी उसी स्वरूपमे है । उससे विशेष परिणामको प्राप्त नही हुआ । अर्थात् कब यहाँसे छूटना और किस क्षेत्रमे जाकर स्थिति करना, यह विचार अभी तक सूझ नहीं सका । विचारके परिणामकी स्वाभाविक परिणति प्राय रहा करती है । उसे विशेषतासे पेरकता नही हो सकती ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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