SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ श्रीमद् राजचन्द्र स्वरूप है, परन्तु उस देहके प्रियतार्थ, सासारिक साधनोमे प्रधान भोगका यह हेतु है, उसका त्याग करना पडता है, ऐसे आर्तध्यानसे किसी प्रकारसे भी उस देहमे बुद्धि न करना, ऐसी ज्ञानीपुरुषके मार्गकी शिक्षा जानकर वैसे प्रसगमे आत्मकल्याणका लक्ष्य रखना योग्य है। सर्व प्रकारसे ज्ञानीकी शरणमे बुद्धि रखकर निर्भयताका, शोकरहितताका सेवन करनेकी शिक्षा श्री तीर्थंकर जैसोने दी है, और हम भी यही कहते है। किसी भी कारणसे इस ससारमे क्लेशित होना योग्य नही है । अविचार और अज्ञान ये सर्व क्लेशके, मोहके और अशुभ गतिके कारण है। सद्विचार और आत्मज्ञान आत्मगतिके कारण है। उसका प्रथम साक्षात् उपाय ज्ञानीपुरुषको आज्ञाका विचार करना यही प्रतीत होता है। प्रणाम प्राप्त हो। ४६१ बबई, श्रावण सुदी ४, मगल, १९४९ परमस्नेही श्री सुभाग्य, आपके प्रतापसे यहां कुशलता है । इस तरफ दगा उत्पन्न होने सम्बन्धी बात सच्ची है । हरीच्छासे और आपकी कृपासे यहाँ कुशलक्षेम है। श्री गोसलियाको हमारा प्रणाम कहियेगा । ईश्वरेच्छा होगी तो श्रावण वदी १ के आसपास यहाँसे कुछ दिनोके लिये बाहर जानेका विचार आता है । कौनसे गाँव अथवा किस तरफ जाना, यह अभी कुछ सूझा नही है । काठियावाडमे आना सूझे, ऐसा भासित नहीं होता। आपको एक बार उसके लिये अवकाशके बारेमे पूछवाया था। उसका यथायोग्य उत्तर नही आया। गोसलिया बाहर जानेका कम डर रखता हो और आपको निरुपाधि जैसा अवकाश हो, तो पांच-पद्रह दिन किसी क्षेत्रमे निवृत्तिवासका विचार होता है, वह ईश्वरेच्छासे करे । कोई जीव सामान्य मुमुक्षु होता है, उसका भी इस ससारके प्रसगमे प्रवृत्ति करनेका वोर्य मद पड जाता है, तो हमे उसके सम्बन्धमे अधिक मदता रहे, इसमे आश्चर्य नही लगता । तथापि किसी पूर्वकालमे प्रारब्ध उपार्जन होनेका एसा ही प्रकार होगा कि जिससे उस प्रसगमे प्रवृत्ति करना रहा करता है, परन्तु वह कैसा रहा करता है ? ऐसा रहा करता है कि जो खास ससार-सुखकी इच्छावाला हो, उसे भी वैसा करना न पुसाये । यद्यपि इस बातका खेद करना योग्य नही है, और उदासीनताका ही सेवन करते हैं, तथापि उस कारणसे एक दूसरा खेद उत्पन्न होता है, वह यह कि सत्संग और निवृत्तिकी अप्रधानता रहा करती है और जिसमे परम रुचि है, ऐसे आत्मज्ञान और आत्मवार्ताको किसी भी प्रकारको इच्छाके बिना क्वचित् त्याग जैसे रखने पड़ते है। आत्मज्ञान वेदक होनेसे उद्विग्न नही करता, परन्तु आत्मवार्ताका वियोग उद्विग्न करता है। आप भी चित्तमे इसी कारणसे उद्विग्न होते हैं। जिन्हे बहुतइच्छा है ऐसे कई मुमुक्षुभाई भी उस कारणसे विरहका अनुभव करते हैं। आप दोनो ईश्वरेच्छा क्या समझते है ? यह विचारियेगा । और यदि किसी प्रकारसे श्रावण वदीका योग हो तो वह भी कीजियेगा। ससारकी ज्वाला देखकर चिंता न कीजियेगा। चिंतामे समता रहे तो वह आत्मचिंतन जैसा है। कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा । यही विनती। प्रणाम । बम्बई, श्रावण सुदी ५, १९४९ जौहरी लोग ऐसा मानते है कि एक साधारण सुपारी जैसा सुन्दर रगका, पाणीदार और घाटदार माणिक (प्रत्यक्ष) दोषरहित हो तो उसकी करोडो रुपये कीमत गिनें तो भी वह कम है। यदि विचार कर ४६२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy