SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 643
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२८ श्रीमद् राजचन्द्र निरतर स्वरूपलाभ, स्वरूपाकार उपयोगका परिणमन इत्यादि स्वभाव अन्तराय कर्मके क्षयसे प्रगट होते हैं। जो केवल स्वभावपरिणामी ज्ञान है वह केवलज्ञान है केवलज्ञान है। ७११ राळज, भादो, १९५२ वोद्ध, नैयायिक, साख्य, जैन और मीमासा ये पाँच आस्तिक दर्शन अर्थात् बंध-मोक्ष आदि भावको स्वीकार करनेवाले दर्शन हैं। नैयायिकके अभिप्राय जैसा ही वैशेषिकका अभिप्राय है, साख्य जैसा ही योगका अभिप्राय है-इनमे सहज भेद है, इसलिये उन दर्शनोका अलग विचार नही किया है । पूर्व और उत्तर, ये मीमासादर्शनके दो भेद हैं। पूर्वमीमासा और उत्तरमीमासामे विचारभेद विशेष है, तथापि मीमासा शब्दसे दोनोका बोध होता है, इसलिये यहाँ उस शब्दसे दोनो समझें। पूर्वमीमासाका 'जैमिनी' और उत्तरमीमासाका 'वेदात' ये नाम भी प्रसिद्ध है। बोद्ध और जैनके सिवाय बाकीके दर्शन वेदको मुख्य मानकर चलते है, इसलिये वेदाश्रित दर्शन हैं; और वेदार्थको प्रकाशित कर अपने दर्शनको स्थापित करनेका प्रयत्न करते हैं। बौद्ध और जैन वेदाश्रित नही हैं, स्वतत्र दर्शन हैं। आत्मा आदि पदार्थको न स्वीकार करनेवाला ऐसा चार्वाक नामका छठा दर्शन है। बौद्धदर्शनके मुख्य चार भेद हैं-१ सौत्रातिक, २ माध्यमिक, ३ शून्यवादी और ४ विज्ञानवादी। वे भिन्न-भिन्न प्रकारसे भावोकी व्यवस्था मानते हैं। जेनदर्शनके सहज प्रकारातरसे दो भेद हैं-दिगबर और श्वेताबर । पाँचो आस्तिक दर्शनोको जगत अनादि अभिमत है। बौद्ध, साख्य, जैन और पूर्वमीमासाके अभिप्रायसे सृष्टिकर्ता ऐसा कोई ईश्वर नही है। नैयायिकके अभिप्रायसे तटस्थरूपसे ईश्वर कर्ता है । वेदातके अभिप्रायसे आत्मामे जगत विवर्तरूप अर्थात् कल्पितरूपसे भासित होता है, और इस तरहसे ईश्वरको कल्पितरूपसे कर्ता माना है। योगके अभिप्रायसे नियतारूपसे ईश्वर पुरुषविशेष है। वौद्धके अभिप्रायसे निकाल और वस्तुस्वरूप आत्मा नही है, क्षणिक है। शून्यवादी बौद्धके अभिप्रायसे विज्ञान मात्र है, और विज्ञानवादी बौद्धके अभिप्रायसे दु.ख आदि तत्त्व हैं। उनमे विज्ञानस्कन्ध क्षणिकरूपसे आत्मा है। नैयायिकके अभिप्रायसे सर्वव्यापक ऐसे असख्य जीव है। ईश्वर भी सर्वव्यापक हे । आत्मा आदिको मनके सान्निध्यसे ज्ञान उत्पन्न होता है। ___साख्यके अभिप्रायसे सर्वव्यापक ऐसे असख्य आत्मा हैं। वे नित्य, अपरिणामी और चिन्मात्रस्वरूप है। जैनके अभिप्रायसे अनत द्रव्य आत्मा हैं, प्रत्येक भिन्न है। ज्ञान, दर्शन आदि चेतना स्वरूप, नित्य और परिणामी प्रत्येक आत्मा असख्यातप्रदेशी स्वशरीरावगाहवत्तीं माना है। पूर्वमोमासाके अभिप्रायसे जीव असख्य हैं, चेतन है। उत्तरमोमासाके अभिप्रायसे एक ही आत्मा सर्वव्यापक ओर सच्चिदानदमय निकालावाध्य है। ___ आणद, भादो वदी १२, रवि, १९५२ पत्र मिला है। 'मनुष्य आदि प्राणीकी वृद्धि' के सम्बन्धमे आपने जो प्रश्न लिखा था, वह प्रश्न जिस फारणसे लिसा गया था, उस कारणको प्रश्न मिलनेके समय सुना था। ऐसे प्रश्नसे आत्मार्थ सिद्ध - - ७१२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy