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________________ २९ वो वर्ष ५२९ ही होता, अथवा वृथा कालक्षेप जैसा होता है; इसलिये आत्मार्थका लक्ष्य होनेके लिये, आपको वैसे श्नके प्रति अथवा वैसे प्रसगोके प्रति उदासीन रहना योग्य है, ऐसा लिखा था। तथा वैसे प्रश्नका उत्तर लखने जैसी यहाँ वर्तमान दशा प्रायः नही है, ऐसा लिखा था । अनियमित और अल्प आयुवाली इस देहमे नात्मार्थका लक्ष्य सबसे प्रथम कर्तव्य है। ७१३ आणद, आसोज, १९५२ आस्तिक ऐसे मूल पाँच दर्शन आत्माका निरूपण करते हैं, उनमे भेद देखनेमे आता है, उसका समाधान : दिन प्रतिदिन जैनदर्शन क्षीण होता हुआ देखनेमे आता है, और वर्धमानस्वामीके बाद थोड़े ही वर्षोंमे उसमे नाना प्रकारके भेद हुए दिखायी देते हैं, इत्यादिके क्या कारण हैं ? हरिभद्र आदि आचार्योंने नवीन योजनाकी भाँति श्रुतज्ञानकी उन्नति की है ऐसा दिखायी देता है, परत लोकसमुदायमे जैनमार्गका अविक प्रचार हुआ दिखायी नही देता, अथवा तथारूप अतिशय सम्पन्न धर्मप्रवर्तक पुरुषका उस मार्गमे उत्पन्न होना कम दिखायी देता है, उसके क्या कारण हैं ? अब वर्तमानमे उस मार्गकी उन्नति होना सम्भव है या नही ? और हो तो किस किस तरह होनी सम्भव दीखती है, अर्थात् उस बातका, कहाँसे उत्पन्न होकर, किस तरह, किस द्वारसे और किस स्थितिमे प्रचार होना सम्भवित दीखता है ? और फिर वर्धमानस्वामीके समयकी तरह वर्तमानकालके योग आदिके अनुसार उस धर्मका उदय हो ऐसा क्या दीर्घदृष्टिसे सम्भव है ? और यदि सम्भव हो तो वह किस किस कारणसे सम्भव है? जो जैनसूत्र अभी वर्तमानमे हैं, उनमे उस दर्शनका स्वरूप बहुत अधूरा रहा हुआ देखनेमे आता है, वह विरोध किस तरह दूर हो ? उस दर्शनकी परपरामे ऐसा कहा गया है कि वर्तमानकालमे केवलज्ञान नही होता, और केवलज्ञानका विषय सर्व कालमे लोकालोकको द्रव्यगुणपर्यायसहित जानना माना है, क्या वह यथार्थ मालूम होता है ? अथवा उसके लिये विचार करनेपर कुछ निर्णय हो सकता है या नही ? उसकी व्याख्यामे कुछ अतर दिखायी देता है या नही ? और मूल व्याख्याके अनुसार कुछ दूसरा अर्थ होता हो तो उस अर्थके अनुसार वर्तमानमे केवलज्ञान उत्पन्न हो या नही ? और उसका उपदेश किया जा सके या नही? तथा दसरे ज्ञानोकी जो व्याख्या कही गयी हे वह भी कुछ अतरवाली लगती है या नही ? और वह किन कारणोसे ? द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आत्मा मध्यम अवगाही, संकोच-विकासका भाजन, महाविदेह आदि क्षेत्रकी व्याख्या-वे कुछ अपूर्व रीतिसे या कही हुई रीतिसे अत्यन्त प्रबल प्रमाणसहित सिद्ध होने योग्य मालूम होते हैं या नही? ___गच्छके मतमतातर बहुत ही तुच्छ तुच्छ विषयोमे बलवान आग्रही होकर भिन्न भिन्नरूपसे दर्शनमोहनीयके हेतु हो गये हैं, उसका समाधान करना बहुत विकट है । क्योकि उन लोगोकी मति विशेष आवरणको प्राप्त हुए विना इतने अल्प कारणोमे वलवान आग्रह नहीं होता। ___ अविरति, देशविरति, सर्वविरति इनमेसे किस आश्रमवाले पुरुषसे विशेप उन्नति हो सकना सम्भव है ? सर्वविरति बहुतसे कारणोमे प्रतिबधके कारण प्रवृत्ति नही कर सकता, देशविरति और अविरतिकी तथारूप प्रतीति होना मुश्किल है, और फिर जैनमार्गमे भी उस रीतिका समावेश कम है। ये विकल्प हमे किसलिये उठते हे ? और उन्हे शात कर देनेका चित्त है तो क्या उसे शांत कर दें? [अपूर्ण]
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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