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________________ ५८६ श्रीमद् राजचन्द्र भूला हुआ है। उस परमतत्त्वका विचार होनेके लिये जो दिव्य नेत्र चाहिये, उम दिव्य नेत्रका निश्चयसे वर्तमानकालमे वियोग हो गया है। हे सखी | उस अजित भगवानने अजित होनेके लिये अपनाया हुआ मार्ग कुछ इन चर्मचक्षुओंसे दिखायी नहीं देता। क्योकि वह मार्ग दिव्य है, और अतरात्मदृष्टिसे ही उसका अवलोकन किया जा सकता है । जिस तरह एक गाँवसे दूसरे गॉवमे जानेके लिये पृथ्वीतलपर सडक वगैरह मार्ग होते हैं, उसी तरह यह कुछ एक गॉवसे दूसरे गाँव जानेके मार्गकी तरह बाह्य मार्ग नहीं है, अथवा चमचक्षुसे देखनेपर वह दीखने योग्य नही है, चर्मचक्षुसे वह अतीद्रिय मार्ग कुछ दिखायी नही देता ॥२॥ [अपूर्ण] ७५४ सवत् १९५३ हे ज्ञातपुत्र भगवन् । कालकी बलिहारी है। इस भारतके हीनपुण्य मनुष्योको तेरा सत्य, अखड और पूर्वापर अविरुद्ध शासन कहाँसे प्राप्त हो ? उसके प्राप्त होनेमे इस प्रकारके विघ्न उत्पन्न हुए है-तुझसे उपदिष्ट शास्त्रोकी कल्पित अर्थसे विराधना की, कितनोका तो समूल ही खडन कर दिया, ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारणरूप जो तेरी प्रतिमा है, उससे कटाक्षदृष्टिसे लाखो लोग फिर गये, तेरे बादमे परपरासे जो आचार्य पुरुष हुए उनके वचनोमे और तेरे वचनोमे भी शका डाल दी। एकातका उपयोग करके तेरे शासनकी निंदा की। हे शासन देवी | कुछ ऐसी सहायता दे कि जिससे मैं दूसरोको कल्याणके मार्गका बोध कर सकूँउसे प्रदर्शित कर सकूँ,-सच्चे पुरुष प्रदर्शित कर सकते हैं। सर्वोत्तम निग्रंथ-प्रवचनके बोधकी ओर मोड़कर उन्हे इन आत्मविराधक पथोंसे पीछे खीचनेमे सहायता दे ।। तेरा धर्म है कि समाधि और बोधिमे सहायता देना। [निजी ७५५ सवत् १९५३ ॐ नमः अनत प्रकारके शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे आकुल-व्याकुल जीवोकी उन दुःखोसे छूटनेकी अनेक प्रकारसे इच्छा होते हुए भी उनसे वे मुक्त नही हो सकते, इसका क्या कारण है ? ऐसा प्रश्न अनेक जीवोको हुआ करता है, परन्तु उसका यथार्थ समाधान किसी विरल जीवको ही प्राप्त होता है । जब तक दुखका मूल कारण यथार्थरूपसे जाननेमे न आया हो, तब तक उसे दूर करनेके लिये चाहे जैसा प्रयत्न किया जाये, तो भी दुखका क्षय नही हो सकता, ओर उस दुखके प्रति चाहे जितनी अरुचि, अप्रियता आर अनिच्छा हो, तो भी उसका अनुभव करना ही पड़ता है। अवास्तविक उपायसे उस दुखको मिटानेका प्रयत्न किया जाये, और वह प्रयत्न असह्य परिश्रमपूर्वक किया गया हो, फिर भी वह दुख न मिटनेसे दुख मिटानेके इच्छुक मुमुक्षुको अत्यन्त व्यामोह हो जाता है, अथवा हुआ करता है कि इसका क्या कारण ? यह दुख दूर क्यो नही होता ? किसी भी तरह मुझे उस दुखकी प्राप्ति इच्छित नही होनेपर भी, स्वप्नमे भी उसके प्रति कुछ भी वृत्ति न होनेपर भी, उसकी प्राप्ति हुआ करती है, और मैं जो जो प्रयत्न करता हूँ वे सब निष्फल जाकर दुःखका अनुभव किया ही करता हूँ, इसका क्या कारण ? क्या यह दु ख किसीका मिटता ही नही होगा ? दुखी होना ही जीवका स्वभाव होगा ? क्या कोई एक जगतकर्ता ईश्वर होगा, जिसने इसी तरह करना योग्य समझा होगा? क्या यह बात भवितव्यताके अधीन होगी? अथवा किन्ही मेरे पूर्वकृत अपरायोका फल होगा ? इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प जो जीव मनसहित देहधारी हैं वे किया करते हैं, और जो जीव मनरहित हैं वे अव्यक्तरूपसे दुःखका अनुभव करते हैं और वे अव्यक्तरूपसे उस दु खके मिटनेकी इच्छा रखा करते है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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