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श्रीमद् राजचन्द्र
वृत्ति जिससे विक्षिप्त न हो ऐसा वर्तन योग्य है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' अथवा दूसरा सत्शास्त्र थोड़े वक्त मे बहुत करके प्राप्त होगा ।
दुमकाल है, आयु अल्प है, सत्समागम दुर्लभ है, महात्माओके प्रत्यक्ष वाक्य, चरण और आज्ञाका योग कठिन है । इसलिये बलवान अप्रमत्त प्रयत्न कर्तव्य है ।
आपके समीप रहनेवाले मुमुक्षुओको यथा विनय प्राप्त हो ।
शाति
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इस दुषमकालमे सत्समागम और सत्सगता अति दुर्लभ हैं । इसमे परम सत्सग और परम असगताका योग कहाँसे छाजे ?
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बंबई, श्रावण सुदी ३, १९५५
జ
परम पुरुषकी मुख्य भक्ति ऐसे सद्वर्तनसे प्राप्त होती है कि जिससे उत्तरोत्तर गुणोकी वृद्धि हो । चरणप्रतिपत्ति (शुद्ध आचरणकी उपासना ) रूप सद्वर्तन ज्ञानीकी मुख्य आज्ञा है, जो आज्ञा परम पुरुषकी मुख्य भक्ति है ।
उत्तरोत्तर गुणकी वृद्धि होनेमे गृहवासी जनोको सदुद्यमरूप आजीविका व्यवहारसहित प्रवर्तन करना योग्य है ।
अनेक शास्त्रो और वाक्योका अभ्यास करनेकी अपेक्षा जीव यदि ज्ञानीपुरुषोकी एक एक आज्ञाकी उपासना करे, तो अनेक शास्त्रोसे होनेवाला फल सहजमे प्राप्त होता है ।
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मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी ७, १९५५
श्री पद्मनदी शास्त्र' की एक प्रति किसी अच्छे व्यक्तिके साथ वसो क्षेत्रमे मुनिश्री को भेजने की व्यवस्था करें ।
वलवान निवृत्तिवाले द्रव्य-क्षेत्रादिके योगमे आप उस सत्शास्त्रका वारवार मनन और निदिध्यासन करें | प्रवृत्तिवाले द्रव्यक्षेत्रादिमे वह शास्त्र पढना योग्य नही है ।
जब तीन योगकी अल्प प्रवृत्ति हो, वह भी सम्यक् प्रवृत्ति हो तव महापुरुषके वचनामृतका मनन परम श्रेय मूलको दृढीभूत करता है, क्रमसे परमपदको प्राप्त करता है ।
चित्तको विक्षेपरहित रखकर परमशात श्रुतका अनुप्रेक्षण कर्तव्य है ।
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मोहमयी, श्रावण वदी ३०, १९५५ अगम्य होनेपर भी सरल ऐसे महापुरुषोंके मार्गको नमस्कार
सत्समागम निरतर कर्तव्य है । महान भाग्यके उदयसे अथवा पूर्वकालके अभ्यस्त योगसे जीवको सच्ची मुमुक्षुता उत्पन्न होती है, जो अति दुर्लभ है । वह सच्ची मुमुक्षुता बहुत करके महापुरुषके चरणकमलको उपासनासे प्राप्त होती है, अथवा वैसी मुमुक्षुतावाले आत्माको महापुरुपके योगसे आत्मनिष्ठत्व प्राप्त होता है, सनातन अनत ज्ञानीपुरुषो द्वारा उपासित सन्मार्ग प्राप्त होता है। जिसे मच्ची मुमुक्षुता