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३२ वॉ वर्ष
८८०
ॐ
दोनो क्षेत्रोमे सुस्थित मुनिवरोको यथाविनय वदन प्राप्त हो ।
पत्र प्राप्त हुआ । सस्कृतके अभ्यासके लिये अमुक समयका नित्य नियम रखकर प्रवृत्ति करना
योग्य है ।
अप्रमत्त स्वभावका वारवार स्मरण करते हैं ।
पारमार्थिक श्रुत और वृत्तिजयका अभ्यास बढाना योग्य है ।
८८१
६४७
बम्बई, आषाढ सुदी ८, रवि, १९५५
ॐ
८८२
ॐ
बंबई, आषाढ वदी ६, शुक्र, १९५५
परमकृपालु मुनिवर्य के चरणकमलमे परम भक्तिसे सविनय नमस्कार प्राप्त हो ।
कल रातकी डाकगाडीसे यहाँसे भाई त्रिभोवन वीरचदके साथ 'पद्मनदी पचविंशति' नामक सत्शास्त्र मुनिवर्य के मननार्थं भेजनेकी वृत्ति है । इसलिये डाकगाडीके समय आप स्टेशनपर आ जायें । महात्मा श्री उस ग्रन्थका मनन कर लेनेके बाद परमकृपालु मुनिश्री श्रीमान देवकीर्णस्वामीको वह ग्रन्थ भेज दें ।
अन्य मुनियोको सविनय नमस्कार प्राप्त हो ।
बबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५५
मुमुक्षु तथा दूसरे जीवोंके उपकारके निमित्त जो उपकारशील बाह्य प्रतापकी सूचना -- विज्ञापन किया है, वह अथवा दूसरे कोई कारण किसी अपेक्षासे उपकारशील होते है । अभी वैसे प्रवृत्तिस्वभाव के प्रति उपशातवृत्ति है ।
प्रारब्ध योगसे जो बने वह भो शुद्ध स्वभावके अनुसधानपूर्वक होना योग्य है । महात्माओने निष्कारण करुणासे परमपदका उपदेश किया है, इससे ऐसा मालूम होता है कि उस उपदेशका कार्य परम महान ही है । सब जीवोके प्रति बाह्य दयामे भी अप्रमत्त रहनेका जिसके योगका स्वभाव है, उसका आत्मस्वभाव सब जीवोको परमपदके उपदेशका आकर्षक हो, ऐसी निष्कारण करुणावाला हो, यह यथार्थ है ।
८८३ ॐ नमः
'बिना नयन पावे नहीं बिना नयनकी बात ।
इस वाक्यका मुख्य हेतु आत्मदृष्टि सम्बन्धी है । स्वाभाविक उत्कर्षके लिये यह वाक्य है । समागमके योगमे इसका स्पष्टार्थं समझमे आना सम्भव है । तथा दूसरे प्रश्नोंके समाधानके लिये अभी बहुत अल्प प्रवृत्ति रहती है । सत्समागमके योगमे सहजमे समाधान हो सकता है ।
'विना नयन' आदि वाक्यका स्वकल्पनासे कुछ भी विचार न करते हुए, अथवा शुद्ध चैतन्य दृष्टिकी १. देखें आक २५८ ।
वंबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५५