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अनुवादकका नम्र निवेदन
:: (प्रथम सस्करण)
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___'श्रीमद् राजचद्र' शब्द व्यक्ति और कृति दोनोका बोधक है । श्रीमद् राजचद्र जन्मसे महान है और उनकी आध्यात्मिकता जन्मसिद्ध है । श्रीमद्जी नीति एव न्यायसे सासारिक कार्य करते हुए आत्मविकासको पराकाष्ठा तक पहुँचे हैं, यह उनके जीवनकी एक अनोखी अनुकरणीय विशेषता है। श्रीमद्जीने खुद ही अपने सस्कार, विचार और आचार अपनी विविध रचनाओ-मुख्यत. मुमुक्षुओको लिखे गये पत्रोमे अति स्पष्टता एव सुदृढतासे प्रदर्शित किये है। धर्म और अध्यात्म जीवन है, इस सनातन सत्यके श्रीमद्जी एक ज्वलत तथा अनुपम उदाहरण है अर्थात् वे धर्ममूर्ति एवं अध्यात्ममूर्ति है । उन्होने अपनी अलौकिक स्मृति, प्रज्ञा आदि अनेकविध शक्तियोका उपयोग लौकिक ऐश्वर्यकी प्राप्ति या सिद्धिके लिये नही किया है, किन्तु आत्मिक ऐश्वर्यकी सिद्धिके लिये किया है। और इसके लिये उन्होने अपनी देहकी भी आहुति देकर मनुष्यदेहकी सार्थकताका एक अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनका जीवन गृहस्थ तथा साधु दोनोके लिये प्रेरक एवं उत्साहवर्धक है। उनकी कृति ही उनके जीवनका दर्पण है। यदि उन्होने 'आत्मसिद्धि' की भाँति संपूर्ण आत्मकथा लिखी होती तो वह भी एक अपूर्व देन होती । उनके जीवनको जानने और समझनेके लिये इन आकोका तो अध्ययन, मनन और निदिध्यासन करना ही चाहिये -३०, ५०, ७७,७८, ८२, ८३, ८९. (समुच्चय वयचर्या), ११३, १२६, १२८, १३३, १५७, (दैनदिनी) के ७ व १३, १६१, १६२, १६३, १७०, २४७, २५५, २६४, ३२२, ३२९, ३३४, ३३९, ३९८, ५८६, ६८०, ७०८, ७३८ (अपूर्व अवसर) ९५१,९५४, ९६० (सस्मरण पोथी १/३२ धन्य रे दिवस आ अहो) .. . ।। ३३ वर्षके जीवनका दिग्दर्शन ।
जन्म-सवत् १९२४ कार्तिक सुदी पूर्णिमा, रविवार रातको २ बजे ववाणिया गाँव (काठियावाड) मे, नामपरिवर्तन-चौथे वर्षमे प्यारा नाम'लक्ष्मीनदन 'बदलकर रायचन्द, जातिस्मरणज्ञान-७वें वर्षमे बबूलके पेड पर, शिक्षा-७वें से ११वें वर्ष तक, गुजराती ७ श्रेणि, लेखन-प्रवृत्ति-८वें वर्षमे ही कविता करनेका श्रीगणेश, ५००० कड़ियाँ, ९वें वर्षमे सक्षिप्त रामायण और महाभारत काव्य, 'स्वदेशीओने विनति' (स्वदेशियोको विनती) 'श्रीमत जनोंने शिखामणं' (श्रीमतोको सिखावन), 'हुन्नरकळा वधारवा विषे' (हुनरकला बढानेके विषयमे) 'आर्यप्रजानी पडती' (आर्यप्रजाकी अधोगति), 'स्त्रीनीतिबोधक' आदि सामाजिक और देशोन्नति-विषयक अनेक काव्य, अवधान-१६वेंसे १९वें वर्ष तक, स० १९४२ मे ववईमे शतावधान, विवाह-१९वें वर्षमे-स० १९४३ माघ सुदी १२,' गृहस्थजीवन लगभग १२ साल, व्यापार२२वें वर्षमे श्री रेवाशंकर जगजीवनदासके साझेमे बंबईमे जवाहरातका व्यवसाय, व्यापारी जीवन लगभग ११ साल, क्षायिक सम्यग्दर्शन (आत्मज्ञान)-२३वें वर्षमे (स० १९४७), तभीसे कल्पित एव आध्यात्मिक प्रगतिमे महत्त्वहीन ज्योतिषका त्याग, कंचनकामिनीत्याग-मुनि शिष्योंके सामने ३२वें वर्षमे (स० १९५६), श्रीपरमश्रुतप्रभावक-मण्डल-सं० १९५६ मे स्थापना; अस्वस्थता-विशेषत स० १९५६ मे उनकी शरीरप्रकृति अधिक बिगडने लगी। युवावस्थामे उनका वजन १३२ पौड था, जो कम होते-होते ६५ पौंड हो गया। समाधिमरण-सं०१९५७ चैत्र वदो पंचमी मंगलवार, दिनके २ बजे राजकोटमे,वजन ४५ पौंड।
श्रीमद्जो समय-समयपर अपने प्रवृत्तिमय जीवनसे निवृत्ति लेने और सत्संग करनेके लिये वड़वा,