SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ श्रीमद् राजचन्द्र शिक्षापाठ ३८ : सामायिकविचार-भाग २ मनके दस दोष कहे, अब वचनके दस दोष कहता हूँ :१. कुवचनदोष-सामायिकमे कुवचन बोलना, यह 'कुवचनदोप' है । २ सहसात्कारदोष-सामायिकमे साहससे अविचारपूर्वक वाक्य बोलना, यह 'सहसात्कारदोष' है। ३. असदारोपणदोष-दूसरेको खोटा उपदेश दे, यह 'असदारोपणदोष' है। ४. निरपेक्षदोष--सामायिकमे शास्त्रकी अपेक्षा बिना वाक्य बोले, यह 'निरपेक्षदोष' है। ५. संक्षेपदोष-सूत्रके पाठ इत्यादिक सक्षेपमे बोल डाले, और यथार्थ उच्चारण नही करे, यह सक्षेपदोष' है। ६. क्लेशदोष-किसीसे झगडा करे, यह 'क्लेशदोष' है। ७. विकथादोष-चार प्रकारको विकथा ले बैठे यह 'विकथादोष' है। ८ हास्यदोष-सामायिकमे किसीकी हँसो, मसखरी करे, यह 'हास्यदोष' है। ९. अशुद्धदोष-सामायिकमे सूत्रपाठ न्यूनाधिक और अशुद्ध वोले, यह 'अशुद्धदोष' है। १० मुणमुणदोष-सामायिकमे गडबडीसे सूत्रपाठ बोले, जिसे स्वयं भी पूरा मुश्किलसे समझ सके, यह 'मुणमुणदोष' है। . ये वचनके दस दोष कहे, अब कायाके बारह दोष कहता हूँ : १. अयोग्यासनदोष-सामायिकमे पैरपर पैर चढाकर वैठे यह गुर्वादिकका अविनयरूप आसन है, इसलिये यह पहला 'अयोग्यासनदोष' है। २. चलासनदोष-डगमगाते आसनसे बैठकर सामायिक करे, अथवा जहाँसे वारवार उठना पड़े ऐसे आसनपर वैठे यह 'चलासनदोष' है। ३. चलदृष्टिदोष-कायोत्सर्गमे आँखे चंचल रखे, यह 'चलदृष्टिदोष' है। ४. सावधक्रियादोष-सामायिकमे कोई पाप क्रिया या उसकी सज्ञा करे, यह 'सावद्यक्रियादोष' है । ५. आलंबनदोष-भीत आदिका सहारा लेकर बैठे, इससे वहां बैठे हुए जन्तु आदिका नाश हो और खुदको प्रमाद हो, यह 'आलवनदोष' है। ६. आकुचनप्रसारणदोष-हाथ-पैरको सिकोडे, लम्बा करे आदि, यह "आकुचनप्रसारणदोष' है। ७. आलसदोष-अंगको मरोडे, उँगलियाँ चटकावे आदि, यह 'आलसदोष' है। ८. मोटनदोष-उँगली आदिको टेढी करे, उसे चटकावे यह 'मोटनदोष' है। ९. मलदोष-घिस-घिस कर सामायिकमे खुजाकर मैल उतारे, यह 'मलदोष' है । १०. विमासणदोष-गलेमे हाथ डालकर बैठे इत्यादि, यह 'विमासणदोष' है। ११. निद्रादोष-सामायिकमे ऊंघ आना, यह 'निद्रादोष' है। १२. वस्त्रसंकोचनदोष-सामायिकमे ठड आदिको भीतिसे वस्त्रसे शरीरको सिकोडे, यह 'वस्त्रसकोचनदोप' है। इन बत्तीस दूपणोंसे रहित सामायिक करनी चाहिये और पांच अतिचार टालने चाहिये। शिक्षापाठ ३९ . सामायिकविचार-भाग ३ एकाग्रता और सावधानोके बिना इन बत्तीस दोपोमेसे कोई न कोई दोष लग हो जाते है । विज्ञानवेत्ताओने सामायिकका जघन्य प्रमाण दो घड़ीका वाँधा है । यह व्रत सावधानीपूर्वक करनेसे परम शाति देता है। कितने ही लोगोका यह दो घड़ीका काल जव नही वीतता तब वे बहुत तग आ जाते हैं। सामा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy