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१७ वाँ वर्ष यिकमे निठल्ले बैठनेसे काल बीते भी कहाँसे ? आधुनिक कालमे सावधानीसे सामायिक करनेवाले बहुत ही थोडे है। प्रतिक्रमण सामायिकके साथ करना होता है तब तो वक्त गुजरना सुगम पड़ता है। यद्यपि ऐसे पामर लक्षपूर्वक प्रतिक्रमण नही कर सकते, फिर भी केवल निठल्ले बैठनेको अपेक्षा इसमे जरूर कुछ अन्तर पड़ता है। जिन्हे सामायिक भी पूरी नही आती वे बिचारे फिर सामायिकमे बहुत व्याकुल हो जाते है । बहुतसे बहुलकर्मी इस अवसरमे व्यवहारके प्रपच भी गढ़ रखते है। इससे सामायिक बहुत दूषित होती है।
विधिपूर्वक सामायिक न हो यह बहुत खेदकारक और कर्मकी बहुलता है । साठ घडीका अहोरात्र व्यर्थ चला जाता है। असख्यात दिनोसे भरपूर अनत कालचक्र व्यतीत करते हुए भी जो सार्थक नही हुआ उसे दो घडीकी विशुद्ध सामायिक सार्थक कर देती है। लक्षपूर्वक सामायिक होनेके लिये सामायिकमे प्रवेश करनेके बाद चार लोगस्ससे अधिक लोगस्सका कायोत्सर्ग करके चित्तकी कुछ स्वस्थता लाना। फिर सूत्रपाठ या उत्तम ग्रन्थका मनन करना । वैराग्यके उत्तम काव्य बोलना। पिछले अध्ययन किये हुयेका स्मरण कर जाना। नूतन अभ्यास हो सके तो करना। किसीको शास्त्रावारसे बोध देना । इस तरह सामायिकका काल व्यतीत करना । 'यदि मुनिराजका समागम हो तो आगमवाणी सुनना और उसका मनन करना, वैसा न हो और शास्त्रपरिचय न हो तो विचक्षण अभ्यासोसे वैराग्यबोधक कथन श्रवण करना, अथवा कुछ अभ्यास करना । यह सारा योग न हो तो कुछ समय लक्षपूर्वक कायोत्सर्गमे लगाना, और कुछ समय महापुरुषोकी चरित्रकथामे उपयोगपूर्वक लगाना । परन्तु जैसे बने वैसे विवेक और उत्साह से सामायिकका काल व्यतीत करना। कोई साधन न हो तो पचपरमेष्ठीमत्रका जप ही उत्साहपूर्वक करना । परन्तु कालको व्यर्थ नही जाने देना । धैर्यसे, शातिसे और यत्नासे सामायिक करना । जैसे बने वैसे सामायिकमे शास्त्रपरिचय बढाना ।
साठ घडीके वक्तमेसे दो घडी अवश्य बचाकर सामायिक तो सद्भावसे करना।
शिक्षापाठ ४० : प्रतिक्रमण विचार प्रतिक्रमण अर्थात् सामने जाना-स्मरण कर जाना-फिरसे देख जाना-ऐसा इसका अर्थ हो सकता है । "जिस दिन जिस समय प्रतिक्रमण करनेके लिये बैठे उस समयसे पहले उस दिन जो-जो दोष हुए है उन्हे एकके बाद एक देख जाना और उनका पश्चात्ताप करना या दोषोका स्मरण कर जाना इत्यादि सामान्य अर्थ भी है।'
उत्तम मुनि और भाविक श्रावक सध्याकालमे और रात्रिके पिछले भागमे दिन और रात्रिमे यो अनुक्रमसे हुए दोषोका पश्चात्ताप या क्षमापना करते है, इसका नाम यहाँ प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण हमे भी अवश्य करना चाहिये, क्योकि आत्मा मन, वचन और कायाके योगसे अनेक प्रकारके कर्म वाँधता है। प्रतिक्रमणसूत्रमे इसका दोहन किया हुआ है, जिससे दिन-रातमे हुए पापोका पश्चात्ताप उसके द्वारा हो सकता है। शुद्ध भावसे पश्चात्ताप करनेमे लेश पाप होते हुए परलोकभय और अनुकपा प्रगट होते है. आत्मा कोमल होता है। त्याग करने योग्य वस्तुका विवेक आता जाता है। भगवानकी साक्षीसे, अज्ञान इत्यादि जिन-जिन दोषोका विस्मरण हुआ हो उनका पश्चात्ताप भी हो सकता है। इस प्रकार यह निर्जरा करनेका उत्तम साधन है।
१ द्वि० आ० पाठा-'भावकी अपेक्षासे जिस दिन जिस समय प्रतिक्रमण करना हो, उस समयसे पहले अथवा उस दिन जो-जो दोप हुए हो उन्हें एकके बाद एक अतरात्मभावसे देख जाना और उनका पश्चात्ताप करके दोपोंमे पीछे हटना, यह प्रतिक्रमण है।'