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३१ वॉ वर्ष
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अमुक समय जब निवृत्तिके लिये किसी क्षेत्रमे रहना होता है, तब प्राय पत्र लिखनेकी वृत्ति कम रहती है, इस बार विशेष कम हैं, परंतु आपका पत्र इस प्रकारका था कि जिसका उत्तर न मिलनेसे आपको पता न चले कि किस कारणसे ऐसा हुआ ।
अमुक स्थलमे स्थिति होना अनिश्चित होनेसे ववईसे पत्र नही लिखा जा सका था ।
८४३ वसो, प्रथम आसोज सुदी ६, बुध, १९५४ श्रीमान वीतराग भगवानोने जिसका अर्थ निश्चित किया है ऐसा, अचित्य चिंतामणिस्वरूप, परम हितकारी,
परम अद्भुत, सर्व दुःखोका निःसंशय आत्यंतिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवंत रहे, त्रिकाल जयवत रहे ।
उन श्रीमान अनत चतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवत धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है । जिन्हे दूसरी कोई सामर्थ्य नही, ऐसे अबुध एव अशक्त मनुष्योने भी उस आश्रयके बलसे परम सुखहेतु अद्भुत फलको प्राप्त किया है, प्राप्त करते हैं और प्राप्त करेंगे । इसलिये निश्चय और आश्रय ही कर्तव्य है, अधीरतासे खेद कर्तव्य नही है ।
चित्तमे देहादि भयका विक्षेप भी करना योग्य नही है ।
जो पुरुष देहादि सम्बन्धी हर्षविषाद नही करते, वे पुरुष पूर्ण द्वादशागको सक्षेपमे समझे हैं, ऐसा समझें । यही दृष्टि कर्तव्य है ।
'मैंने धर्मं नही पाया', 'मैं धर्म कैसे पाऊँगा ?" इत्यादि खेद न करते हुए वीतराग पुरुषोका धर्म, जो देहादिसम्बन्धी हर्षविषादवृत्ति दूर करके 'आत्मा असग - शुद्ध - चैतन्य स्वरूप है' ऐसी वृत्तिका निश्चय और आश्रय ग्रहण करके उसी वृत्तिका बल रखना, और जहाँ वृत्ति मद हो जाय वहाँ वीतराग पुरुषोकी दशाका स्मरण करना, उस अद्भुत चरित्रपर दृष्टि प्रेरित कर वृत्तिको अप्रमत्त करना, यह सुगम और निर्विकल्प सर्वोत्कृष्ट उपकारक तथा कल्याणस्वरूप है ।
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आसोज, १९५४
कराल काल । इस अवसर्पिणीकालमे चौबीस तीर्थंकर हुए। उनमे अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान श्री महावीर दीक्षित हुए भी अकेले । सिद्धि प्राप्त को भी अकेले । उनका भी प्रथम उपदेश निष्फल गया ।
आसोज, १९५४
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'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तार कर्मभूभृता । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वदे तद्गुणलव्धये ॥ अज्ञान तिमिराधानां ज्ञानाजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम ॥
यथाविधि अध्ययन और मनन कर्तव्य है ।
१. भावाचंके लिये देखें उपदेश नोघ ३७