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________________ २४ वाँ वर्ष २८७ फिर आपको अपनी अनुकूलताके अनुसार करना मान्य है । श्री त्रिभोवनको प्रणाम कहे । आप सब जिस स्थलमे (पुरुषमे) प्रीति करते हैं, वह क्या यथार्थ कारणोको लेकर है ? सच्चे पुरुषको हम कैसे पहचानें ? बंबई, वैशाख सुदी ७, शुक्र, १९४७ २४४ परब्रह्म आनंदमूर्ति है, उसका त्रिकालमे अनुग्रह चाहते है । कुछ निवृत्तिका समय मिला करता है, परब्रह्मविचार तो ज्योका त्यो रहा हो करता है. कभी तो उसके लिये आनंदकिरणें बहुत स्फुरित हो उठती हैं, और कुछकी कुछ (अभेद) बात समझ मे आती है, परन्तु किसीसे कही नही जा सकती, हमारी यह वेदना अथाह है । वेदना के समय साता पूछनेवाला चाहिये, ऐसा व्यवहारमार्ग है, परन्तु हमे इस परमार्थमार्गमे साता पूछनेवाला नही मिलता, और जो है उससे वियोग रहता है । तो अब जिसका वियोग है ऐसे आप हमे किसी भी प्रकारसे साता पूछें ऐसी इच्छा करते है । २४५ बबई, वैशाख सुदी १३, १९४७ निर्मल प्रीतिसे हमारा यथायोग्य स्वीकार कीजिये । श्री त्रिभोवन और छोटालाल इत्यादिसे कहिये कि ईश्वरेच्छाके कारण उपाधियोग है, इसलिये आपके वाक्योके प्रति उपेक्षा रखनी पड़ती है, और वह क्षमा करने योग्य है । २४६ बंबई, वैशाख वदी ३, १९४७ विरह भी सुखदायक मानना । हरिकी विरहाग्नि अतिशय जलनेसे साक्षात् उसकी प्राप्ति होती है । उसी प्रकार सतके विरहानुभवका फल भी वही है । ईश्वरेच्छा से अपने सम्बन्धमे वैसा ही मानियेगा । पूर्णकाम हरिका स्वरूप है । उसमे जिनका निरतर लय लग रहा है ऐसे पुरुषोंसे भारतक्षेत्र प्राय शून्यवत् हुआ है । माया, मोह ही सर्वत्र दिखायी देता है । क्वचित् मुमुक्षु दिखाई देते हैं, तथापि मतांतर आदिके कारणोसे उन्हे भी योगका मिलना दुर्लभ होता है । आप जो हमे वारवार प्रेरित करते है, उसके लिये हमारी जेसी चाहिये वैसी योग्यता नही है, और हरि साक्षात् दर्शन देकर जब तक उस बात के लिये प्रेरित नही करते तब तक इच्छा नही होती और होगी भो नही । बम्बई, वैशाख वदी ८, रवि, १९४७ २४७ हरिके प्रतापसे हरिका स्वरूप मिलेंगे तब समझायेंगे (!) उपाधियोग और चित्तके कारण कितना ही समय सविस्तर पत्रके विना व्यतीत किया है, उसमे भी चित्तकी दशा मुख्य कारणरूप है । आजकल आप किस प्रकारसे समय व्यतीत करते है सो लिखियेगा, और क्या इच्छा रहती है ? यह भी लिखियेगा । व्यवहारके कार्यमे क्या प्रवृत्ति है, और तत्सवधी क्या इच्छा रहती है ? यह भी विदित कीजियेगा, अर्थात् वह प्रवृत्ति सुखरूप लगती है क्या ? यह भी लिखियेगा । चित्तकी दशा चैतन्यमय रहा करती है, जिससे व्यवहारके सभी कार्य प्राय. अव्यवस्था से करते हे । हरीच्छाको सुखदायक मानते हैं । इसलिये जो उपाधियोग विद्यमान है, उसे भी समाधियोग मानते हैं । चित्तकी अव्यवस्थाके कारण मुहूर्त मात्रमे किये जा सकनेवाले कार्यका विचार करनेमे भी पखवारा विता दिया जाता है और कभी उसे किये विना ही जाने देना होता है। सभी प्रसगोमें ऐसा हो तो भी हानि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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