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________________ २८८ श्रीमद् राजचन्द्र नही मानी है, तथापि आपसे कुछ कुछ ज्ञानवार्ता की जाये तो विशेष आनन्द रहता है, और उस प्रसगमे चित्तको कुछ व्यवस्थित करनेकी इच्छा रहा करती है, फिर भी उस स्थितिमे भी अभी प्रवेश नही किया जा सकता। ऐसी चित्तकी दशा निरकुश हो रही है, और उस निरकुशता के प्राप्त होनेमे हरिका परम अनुग्रह कारण है ऐसा मानते है । इसी निरकुशताकी पूर्णता किये बिना चित्त यथोचित समाधियुक्त नही होगा ऐसा लगता है । अभी तो सब कुछ अच्छा लगता है, और सव कुछ अच्छा नही लगता, ऐसी स्थिति है । जब सब कुछ अच्छा लगेगा तव निरकुशताको पूर्णता होगी । यह पूर्णकामता भी कहलाती है, जहाँ हरि ही सर्वत्र स्पष्ट भासता है । अभी कुछ अस्पष्ट भासता है, परन्तु स्पष्ट हे ऐसा अनुभव है । जो रस जगतका जीवन है, उस रसका अनुभव होने के बाद हरिमे अतिशय लय हुआ है, और उसका परिणाम ऐसा आयेगा कि जहाँ जिस रूप मे चाहे उस रूपमे हरि आयेगे, ऐसा भविष्यकाल ईश्वरेच्छाके कारण लिखा है । हम अपने अतरग विचार लिख सकनेमे अतिशय अशक्त हो गये है, जिससे समागमकी इच्छा है, परन्तु ईश्वरेच्छा अभी वैसा करनेमे असम्मत लगती है, जिससे वियोगमे रहते है । उस पूर्णस्वरूप हरिमे जिसकी परम भक्ति है, ऐसा कोई भी पुरुष वर्तमानमे दिखायी नही देता, इसका क्या कारण होगा ? तथा ऐसी अति तीव्र अथवा तीव्र मुमुक्षुता किसीमे देखनेमे नही आयी इसका क्या कारण होगा ? क्वचित् तीव्र मुमुक्षुता देखनेमे आयी होगो तो वहाँ अनतगुण गंभीर ज्ञानावतार पुरुषका लक्ष्य क्यो देखनेमे नही आया होगा ? इस विषय मे आपको जो लगे सो लिखियेगा । दूसरी बड़ी आश्चर्यकारक बात तो यह है कि आप जैसोको सम्यग्ज्ञानके बीजकी, पराभक्तिके मूलकी प्राप्ति होनेपर भी उसके वादका भेद क्यो प्राप्त नही होता ? तथा हरिके प्रति अखण्ड लयरूप वेराग्य जितना चाहिये उतना क्यो वर्धमान नही होता ? इसका जो कुछ कारण समझमे आता हो सो लिखियेगा । हमारे चित्ती व्यवस्था ऐसी हो जानेके कारण किसो काममे जैसा चाहिये वैसा उपयोग नही रहता, स्मृति नही रहती, अथवा खबर भी नही रहती, इसके लिये क्या करना ? क्या करना अर्थात् व्यवहारमे रहते हुए भी ऐसी सर्वोत्तम दशा दूसरे किसीको दुखरूप नही होनी चाहिये, और हमारे आचार ऐसे हैं कि कभी वैसा हो जाता है। दूसरे किमीको भी आनदरूप लगनेमे हरिको चिंता रहती है, इसलिये वे रखेगे । हमारा काम तो उस दशाकी पूर्णता करनेका है, ऐसा मानते है, तथा दूसरे किसीको सतापरूप होका तो स्वप्नमे भी विचार नही है । सभीके दास है, तो फिर दुखरूप कौन मानेगा ? तथापि व्यवहारप्रसंग हरिको माया हमे नही तो दूसरे को भी कोई और ही आशय समझा दे तो निरुपायता है, और इतना भी शोक रहेगा । हम सर्व सत्ता हरिको अर्पण करते है, की है। अधिक क्या लिखना ? परमानदरूप हरिको क्षण भर भी न भूलना, यह हमारी सर्व कृति, वृत्ति और लिखनेका हेतु है । बम्बई, वैशाख वदो ८, रवि, १९४७ २४८ ॐ नमः किसलिये कटाला आता है, आकुलता होती है ? सो लिखे । हमारा समागम नही है, इसलिये ऐसा होता है, यो कहना हो तो हमारा समागम अभी कहाँ किया जा सकता है ? यहाँ करने देनेकी हमारी इच्छा नही होती । अन्य किसी स्थानपर होनेका प्रसग भवितव्यता के योगपर निर्भर है । खभात आनेके लिये भी योग नही बन सकता ह पूज्य सोभागभाईका समागम करनेको इच्छा मे हमारी अनुमति है । तथापि अभी उनका समागम करनेका आपके लिये अभी कारण नही है, ऐसा जानते है |
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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