SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ वॉ वर्ष २८९ हमारा समागम आप (सब) किसलिये चाहते है, इसका स्पष्ट कारण बताये तो उसे जाननेकी अधिक इच्छा रहती है। 'प्रबोधशतक' भेजा है, सो पहुँचा होगा। आप सबके लिये यह शतक श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने योग्य है। यह पुस्तक वेदातको श्रद्धा करनेके लिये नही भेजी है, ऐसा लक्ष्य सुननेवालेका पहले होना चाहिये। दूसरे किसी कारणसे भेजी है, जिसे प्राय विशेष विचार करनेसे आप जान सकेंगे। अभी आपके पास कोई वैसा बोधक साधन नही होनेसे यह शतक ठोक साधन है, ऐसा मानकर इसे भेजा है। इसमेसे आपको क्या जानना चाहिये, इसका आप स्वय विचार करे। इसे सुननेपर कोई हमारे विषयमे यह आशका न करे कि इसमे जो कुछ आशय वताया गया है, वह मत हमारा है, मात्र चित्तकी स्थिरताके लिये इस पुस्तकके बहुतसे विचार उपयोगी है, इसलिये भेजी है, ऐसा मानना। श्री दामोदर और मगनलालके हस्ताक्षरवाला पत्र चाहते है ताकि उसमे उनके विचार मालूम हो। २४९ बम्बई, जेठ सुदी ७, शनि, १९४७ ॐ नमः कराल काल होनेसे जीवको जहाँ वृत्तिकी स्थिति करनी चाहिये, वहाँ वह कर नही सकता। सद्धर्मका प्राय लोप ही रहता है । इसलिये इस कालको कलियुग कहा गया है । सद्धमंका योग सत्पुरुषके बिना नहीं होता, क्योकि असत्मे सत् नही होता। प्राय सत्पुरुषके दर्शन और योगकी इस कालमे अप्राप्ति दिखायी देती है। जब ऐसा है, तव सद्धर्मरूप समाधि मुमुक्षु पुरुषको कहाँसे प्राप्त हो ? और अमुक काल व्यतीत होनेपर भी जब ऐसी समाधि प्राप्त नही होती तब मुमुक्षुता भी कैसे रहे ? प्राय जीव जिस परिचयमे रहता है, उस परिचयरूप अपनेको मानता है। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है कि अनार्यकुलमे परिचय रखनेवाला जीव अपनेको अनार्यरूपमे दृढ़ मानता है और आर्यत्वमे मति नही करता। इसलिये महा पुरुषोने और उनके आधारपर हमने ऐसा दृढ निश्चय किया है कि जीवके लिये सत्सग, यही मोक्षका परम साधन है । ___ सन्मार्गके विषयमे अपनी जैसी योग्यता है, वैसी योग्यता रखनेवाले पुरुषोके सगको सत्सग कहा है। महान पुरुषके सगमे जो निवास है, उसे हम परम सत्सग कहते है, क्योकि इसके समान कोई हितकारी साधन इस जगतमे हमने न देखा है और न सुना है । पूर्वमे हो गये महा पुरुषोका चिन्तन कल्याणकारक है, तथापि वह स्वरूपस्थितिका कारण नही हो सकता, क्योकि जीवको क्या करना चाहिये यह बात उनके स्मरणसे समझमे नही आती । प्रत्यक्ष योग होनेपर विना समझाये भी स्वरूपस्थितिका होना हम सभवित मानते हैं, और इससे यह निश्चय होता हे कि उस योगका और उस प्रत्यक्ष चिंतनका फल मोक्ष होता है, क्योकि सत्पुरुप हो 'मूर्तिमान मोक्ष' है। मोक्षगत (अर्हत आदि) पुरुषोका चितन बहुत समयमे भावानुसार मोक्षादि फलका दाता होता है। सम्यक्त्वप्राप्त पुरुषका निश्चय होनेपर और योग्यताके कारणसे जीव सम्यक्त्व पाता है। २५० बम्बई, जेठ सुदी १५, रवि, १९४७ भक्ति पूर्णता पानेके योग्य तब होतो हे कि एक तृणमात्र भी हरिसे न माँगना, सर्वदशामे भक्तिमय ही रहना। ३७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy