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________________ उपदेश नोंघ ६७७ म०-साहब, दोनोकी जरूरत है। श्रीमद् श्री हेमचन्द्राचार्यको हुए आठ सौ बरस हो गये । श्री आनदघनजीको हुए दो सौ बरस हो गये । श्री हेमचद्राचार्यने लोकानुग्रहमे आत्मार्पण किया। श्री आनदघनजीने आत्महित साधनप्रवृत्तिको मुख्य बनाया । श्री हेमचद्राचार्य महा प्रभावक बलवान क्षयोपशमवाले पुरुष थे। वे इतने सामर्थ्यवान थे कि वे चाहते तो अलग पथका प्रवर्तन कर सकते थे । उन्होने तीस हजार घरोको श्रावक बनाया । तीस हजार घर अर्थात् सवा लाखसे डेढ लाख मनुष्योकी सख्या हुई। श्री सहजानदजीके सम्प्रदायमे एक लाख मनुष्य होगे । एक लाखके समूहसे सहजानदजीने अपना सप्रदाय चलाया, तो डेढ लाख अनुयायियोका एक अलग सप्रदाय श्री हेमचन्द्राचार्य चाहते तो चला सकते थे। परन्तु श्री हेमचन्द्राचार्यको लगा कि सम्पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर ही धर्मप्रवर्तक हो सकते हैं। हम तो तीर्थकरोकी आज्ञासे चलकर उनके परमार्थ मार्गका प्रकाश करनेके लिये प्रयत्न करनेवाले हैं। श्री हेमचन्द्राचार्यने वीतरागमार्गके परमार्थका प्रकाशनरूप लोकानुग्रह किया। वैसा करनेकी जरूरत थी। वीतरागमार्गके प्रति विमुखता और अन्य मार्गकी तरफसे विषमता, ईर्ष्या आदि शुरू हो चुके थे। ऐसी विषमतामे लोगोको वीतराग मार्गकी ओर मोडनेकी, लोकोपकारकी तथा उस मार्गके रक्षणकी उन्हे जरूरत मालूम हुई। हमारा चाहे कुछ भी हो, इस मार्गका रक्षण होना चाहिये। इस प्रकार उन्होने स्वार्पण किया । परन्तु इस तरह उन जैसे ही कर सकते है । वैसे भाग्यवान, माहात्म्यवान, क्षयोपशमवान ही कर सकते है। भिन्न भिन्न दर्शनोको यथावत् तोलकर अमुक दर्शन सम्पूर्ण सत्य स्वरूप है, ऐसा जो निश्चय कर सकते है वैसे पुरुष ही लोकानुग्रह, परमार्थप्रकाश ओर आत्मार्पण कर सकते है। श्री हेमचन्द्राचार्यने बहुत किया। श्री आनदघनजी उनके छ. सौ बरस बाद हुए। इन छ. सौ बरसके अतरालमे वैसे दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी जरूरत थी। विषमता व्याप्त होती जाती थी। काल उग्रस्वरूप लेता जाता था। श्री वल्लभाचार्यने शृगारयुक्त धर्मका प्ररूपण किया। शृगार युक्त धर्मकी ओर लोक मुडे-आकर्षित हुए । वीतरागधर्म-विमुखता बढती चलो । अनादिसे जीव शृगार आदि विभावमे तो मूर्छा प्राप्त कर रहा है, उसे वैराग्यके सन्मुख होना मुश्किल है। वहाँ यदि उसके पास शृगारको ही धर्मरूपसे रखा जाये तो वह वैराग्यकी ओर कैसे मुइ सकता है ? यो वीतरागमार्ग-विमुखता वढी। वहाँ फिर प्रतिमाप्रतिपक्ष-सप्रदाय जैनमे ही खडा हो गया। ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारण ऐसी जिन-प्रतिमाके प्रति लाखो लोग दृष्टिविमुख हो गये, वीतरागशास्त्र कल्पित अर्थसे विराधित हुए, कितने तो समूल ही खडित किये गये। इस तरह इन छ सौ बरसके अतरालमे वीतरागमार्गरक्षक दूसरे हेमचन्द्राचार्यकी जरूरत थी। अन्य अनेक आचार्य हुए, परन्तु वे श्री हेमचन्द्राचार्य जैसे प्रभावशाली नही थे। इसलिये विषमताके सामने टिका न जा सका । विषमता बढती चली। वहां दो सौ वरस पूर्व श्री आनदघनजी हुए। श्री आनदधनजीने स्वपरहित-बुद्धिसे लोकोपकार-प्रवृत्ति शुरू की । इस मुख्य प्रवृत्तिमे आत्महितको गौण किया, परन्तु वीतरागधर्मविमुखता, विषमता इतनी अधिक व्याप्त हो गयी थी कि लोग धर्मको अथवा आनदघनजीको पहचान नहीं सके, पहचान कर कदर न कर सके । परिणामत श्री आनदघनजोको लगा कि प्रबल व्याप्त विषमताके योगमे लोकोपकार, परमार्थप्रकाश कारगर नहीं होता और आत्महित गौण होकर उसमे बाधा आती है, इसलिये आत्महितको मुत्य करके उसमें प्रवृत्ति करना योग्य है। ऐमी विचारणासे अतमे वे लोकसंगको छोडकर वनमे चल दिये। वनमे विचरते हुए भी अप्रगटत्पसे रहकर चौबीसो, पद आदिसे लोकोपकार तो कर ही गये । निष्कारण लोकोपकार यह महापुरुपोका धर्म है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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