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________________ ६७८ श्रीमद् राजचन्द्र प्रगटरूपसे लोग आनदघनजीको पहचान नही सके । परन्तु आनंदघनजी तो अप्रगट रहकर उनका हित करते गये। अब तो श्री आनदधनजोके समयसे भी अधिक विषमता, वीतरागमार्ग-विमुखता व्याप्त है। श्री आनदघनजीको सिद्धातबोध तीन था। वे श्वताबर सप्रदायमे थे। चूर्णि, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति परपर अनुभव रे' इत्यादि पचागीका नाम उनके श्री नमिनाथजीके स्तवनमे न आया होता तो यह पता भी न चलता कि वे श्वेताबर सप्रदायके थे या दिगंबर सप्रदायके ? । मोरबी, चैत्र वदी ३०, १९५५ 'इस भारतवर्षको अधोगति जैनधर्मसे हुई है' ऐसा महीपतराम रूपराम कहते थे, लिखते थे । दसेक वर्ष पहले उनका मिलाप अहमदाबादमे हुआ था, तब उन्हे पूछा - प्र.-भाई । जैनधर्म अहिंसा, सत्य, मेल, दया, सर्व प्राणीहित, परमार्थ, परोपकार, न्याय, नीति, आरोग्यप्रद आहारपान, निर्व्यसनता, उद्यम आदिका उपदेश करता है ? उ०-हाँ । ( महीपतरामने उत्तर दिया।) प्र०-भाई । जैनधर्म हिंसा, असत्य, चोरी, फूट, क्रूरता, स्वार्थपरायणता, अन्याय, अनीति, छल-कपट, विरुद्ध आहार-विहार, मौज-शौक, विषय-लालसा, आलस्य, प्रमाद आदिका निषेध करता है ? म० उ० हाँ। प्र०-देशकी अधोगति किससे होती है ? अहिंसा, सत्य, मेल, दया, परोपकार, परमार्थ, सर्व प्राणीहित, न्याय, नीति, आरोग्यप्रद एवं आरोग्यरक्षक ऐसा शुद्ध सादा आहार-पान, निर्व्यसनता, उद्यम आदिसे अथवा उससे विपरीत हिंसा, असत्य, फूट, क्रता, स्वार्थपटुता, छल-कपट, अन्याय, अनीति, आरोग्यको बिगाड़े और शरीर-मनको अशक्त करे ऐसा विरुद्ध आहार-विहार, व्यसन, मौज-शोक, आलस्य, प्रमाद आदिसे ? म० उ०-दूसरेसे अर्थात् विपरीत हिंसा, असत्य, फूट, प्रमाद आदिसे । प्र०-तब देशकी उन्नति इन दूसरोंसे विपरीत ऐसे अहिंसा, सत्य, मेल, निर्व्यसनता, उद्यम आदिसे होती है ? म० उ०-हाँ! प्र०-तब 'जैनधर्म' देशकी अधोगति हो ऐसा उपदेश करता है या देशकी उन्नति हो ऐसा ? म० उ०-भाई | मै कबूल करता हूँ कि जैनधर्म ऐसे साधनोका उपदेश करता है कि जिनसे देशकी उन्नति हो । ऐसी सूक्ष्मतासे विवेकपूर्वक मैने विचार नही किया था । हमने तो बचपनमे पादरीकी शालामे पढते समय पड़े हुए सस्कारोसे, बिना विचार किये ऐसा कह दिया था, लिख मारा था। महीपतराभने सरलतासे कबूल किया। सत्य शोधनमे सरलताको जरूरत है। सत्यका मर्म लेनेके लिये विवेकपूर्वक मर्ममे उतरना चाहिये। ___ मोरबी, वैशाख सुदी २, १९५५ श्रो आत्मारामजी सरल थे । कुछ धर्मप्रेम था । खण्डन-मडनमे न पडे होते तो अच्छा उपकार कर सकते थे। उनके शिष्यसमुदायमे कुछ सरलता रही है। कोई कोई सन्यासी अधिक सरल देखनेमे आते, है । श्रावकता या साधुता कुल सम्प्रदायमे नही, आत्मामे है। । 'ज्योतिष'को कल्पित समझ कर हमने उसे छोड़ दिया है। लोगोमे आत्मार्थता बहुत कम हो गयी है, नही जैसी रही है। इस सबधमे स्वार्थहेतुसे लोगोने हमे सताना शुरू कर दिया। जिससे आत्मार्थ सिद्ध न हो ऐसे इस ज्योतिपके विषयको कल्पित (असार्थक) समझ कर हमने गौण कर दिया, उसका गोपन कर दिया।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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