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________________ ४०६ श्रीमद् राजचन्द्र . ५०० । बंबई, वैशाख सुदी ९, रवि, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, शुभेच्छाप्राप्त श्री लल्लुजी, ____ यहाँ उपाधिरूप व्यवहार रहता है । प्राय आत्मसमाधिकी स्थिति रहती है । तो भी उस व्यवहारके प्रतिबंधसे छूटनेका वारवार स्मृतिमे आया करता है। उस प्रारब्धको निवृत्ति होने तक तो व्यवहारका प्रतिबध रहना योग्य है, इसलिये समचित्तपूर्वक स्थिति रहती है। , आपका लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है। 'योगवासिष्ठादि' गथका अध्ययन होता हो तो वह हितकारी है। जिनागममे भिन्न भिन्न आत्मा मानकर परिमाणमे अनत आत्मा कहे है और वेदान्तमे उसे-भिन्न भिन्न कहकर, सर्वत्र जो चेतनसत्ता दिखायी देती है, वह एक ही आत्माकी है, और आत्मा एक ही है, ऐसा प्रतिपादन किया है। ये दोनो ही बाते मुमुक्षुपुरुषके लिये अवश्य विचारणीय है, और यथाप्रयत्न इन्हे विचारकर निर्धार करना योग्य है, यह बात नि सन्देह है। तथापि जब तक प्रथम वैराग्य और उपशमका बल दृढतासे जीवमे न आया हो, तब तक उस विचारसे चित्तका समाधान होनेके बदले चचलता होती है, और उस विचारका निर्धार प्राप्त नहीं होता, तथा चित्त विक्षेप पाकर फिर वैराग्य-उपशमको यथार्थरूपसे, धारण नही कर सकता। इसलिये उस प्रश्नका समाधान ज्ञानीपुरुषोने किया है, उसे समझनेके लिये इस जीवमे वैराग्य-उपशम और सत्सगका बल अभी तो बढाने योग्य है, ऐसा विचार करके जीवमे वैराग्यादि बल बढनेके साधनोका आराधन करनेके लिये नित्यप्रति विशेष पुरुषार्थ योग्य है। विचारकी उत्पत्ति होनेके बाद वर्धमानस्वामी जैसे महात्मापुरुषोने पुन पुन. विचार किया कि इस जीवका अनादिकालसे चारो गतियोमे अनतानतबार जन्म-मरण होनेपर भी, अभी वह जन्म-मरणादिकी स्थिति क्षीण नही होती, उसे अब किस प्रकारसे क्षीण करना ? और ऐसी कौन सी भूल इस जीवकी रहती आयी है कि जिस भूलका यहाँ तक परिणमन हुआ है ? इस प्रकारसे पुन पुनः अत्यत एकाग्रतासे सद्बोधके वर्धमान परिणामसे विचार करते करते जो भूल भगवानने देखी है, उसे जिनागममे जगह जगह कहा है, कि जिस भूलको समझकर मुमुक्षुजीव उससे रहित हो। जीवको भूल देखनेपर तो वह अनत विशेष लगती है, परंतु सबसे पहले जीवको सब भूलोकी बीजभूत भूलका विचार करना योग्य है, कि जिस भूलका विचार करनेसे सभी भूलोका विचार होता है, और जिस भूलके दूर होनेसे सब भूलें दूर होती है। कोई जीव कदाचित् नाना प्रकारकी भूलोका विचार करके उस भूलसे छूटना चाहे, तो भी वह कर्तव्य है, और वैसी अनेक भूलोसे छूटनेकी इच्छा मूल भूलसे छूटनेका सहज कारण होता है। , ... शास्त्रमे जो ज्ञान बताया गया है, वह ज्ञान दो प्रकारसे विचारणीय है। एक प्रकार 'उपदेश'का ओर दूसरा प्रकार 'सिद्धान्त'का है। “जन्ममरणादि क्लेशयुक्त इस ससारका त्याग करना योग्य है, अनित्य पदार्थमे विवेकीको रुचि करना नही, होता, माता-पिता, स्वजनादि सबका स्वार्थरूप' सम्बन्ध होनेपर भी यह जीव उस जालका आश्रय किया करता है, यही उसका अविवेक है, प्रत्यक्षरूपसे त्रिविध तापरूप यह ससार ज्ञात होते हुए भी मूर्ख जीव उसीमे विश्राति चाहता है, परिग्रह, आरभ और संग, ये सब अनर्थके हेतु है," इत्यादि जो शिक्षा है, वह 'उपदेशज्ञान' है। "आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, एकत्व अथवा अनेकत्व; बधादिभाव, मोक्ष, आत्माकी सर्व प्रकारको अवस्था, पदार्थ और उसकी अवस्था इत्यादि विषयोको दृष्टातादिसे जिस प्रकारसे सिद्ध किया जाता है, वह 'सिद्धातज्ञान' है।" - मुमुक्षुजीवको प्रथम तो वेदात और जिनागम इन सबका अवलोकन उपदेशज्ञानकी प्राप्तिके लिये ही करना योग्य है, क्योकि सिद्धातज्ञान जिनागम और वेदातमे परस्पर भिन्न देखनेमे आता है, और उस भिन्नताको देखकर मुमुक्षुजीव शकायुक्त हो जाता है, और यह शंका चित्तमे असमाधि उत्पन्न करती है, ऐमा प्राय होने योग्य ही है। क्योकि सिद्धातज्ञान तो जीवमे किसी अत्यंत उज्ज्वल क्षयोपशमसे और
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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