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________________ २७ वो वर्ष ४३३ लोभ इत्यादि प्रकृतिका कर्ता है, और उस भावके फलक भोक्ता होनेसे प्रसंगवशात् घटपटादि पदार्थका निमित्तरूपसे कर्ता है, अर्थात् घटपटादि पदार्थके मूल व्यका कर्ता नहीं है, परन्तु उसे किसी आकारमे लानेरूप क्रियाका कर्ता है। यह जो पीछे उसकी दशा ही है, उसे जैन 'कम' कहता है, वेदात 'भ्राति' कहता है, तथा दूसरे भी तदनुसारी ऐसे शब्द कहते हैं। वास्तविक विचार करनेसे आत्मा घटपटादिका तथा क्रोधादिका कर्ता नहीं हो सकता, मात्र निजस्रूप ज्ञानपरिणामका ही कर्ता, है, ऐसा स्पष्ट समझमे आता है। (३) अज्ञानभावसे किये हुए कर्म प्रारम्भकात्म वीजरूप होकर समयका योग पाकर फलरूप वक्षपरिणामसे परिणमते हैं, अर्थात् वे कर्म आत्माको गोगने पड़ते हैं । जैसे अग्निके स्पर्शसे उष्णताका सम्बन्ध होता है, और उसका सहज वेदनारूप परिणाम तता है, वैसे आत्माको क्रोधादि भावके कर्तारूपसे जन्म, जरा, मरणादि वेदनारूप परिणाम होता है,. स दिवारका आप विशेषरूपसे विचार कीजियेगा, और तत्सम्बन्धी जो कोई प्रश्न हो उसे लिखियेग । कोकि जिस प्रकारको समझ है उससे निवृत्त होनेरूप कार्य करनेपर जीवको मोक्षदशा प्राप्त होती ।। २. प्र०-(१)-ईश्वर क्या है ? (२) वा वह स्वमुच जगतकर्ता है ? __ . उ०-(१) हम आप कर्मवधमे से हुए जी हैं। उस जीवका सहजस्वरुप अर्थात् कर्मरहितरूपसे मात्र एक आत्मत्वरूपसे जो स्वरूप है ह ईश्वरत्व है। जिसमे ज्ञानादि ऐश्वर्य है से ईश्वर कहना योग्य है, और वह ईश्वरता आत्माका सलस्वरूप है । जो स्वरूप कमप्रसगसे प्रतीत नी होता, परंत उस प्रसगको अन्यस्वरूप जानकर, जब नात्माकी ओरदृष्टि होती है, तभी अनुक्रमसे सर्वज्ञतदि. ऐश्वर्य उसी आत्मामे प्रतीत होता है, और उस विशेष ऐश्वयंवाला कोई पदार्थ समस्त पदार्थोको देखा हए भी अनुभवमे नही आ सकता । इसलियेजो ईश्वर है वह वात्माका दूसरा पर्यायवाची नाम है, इससे कोई विशेष सत्तावाला पदार्थ ईश्वर है, ऐसा नही है । ऐसे निश्वयमे मेरा अभिप्राय है। (२) वह जगतकर्ता ही है, अर्थात् परमापु, आकाश आदि पदार्थ नित्य होने योग्य है, वे किसी भी वस्तमेसे बनने योग्य नहीं है। कदाचित् ऐसा मानें कि वे श्विरमेसे बने हैं, तो यह पत भी योग्य नही लगती; क्योकि ईशरको यदि चेतनरूपसे मान, तो उससे प'माणु, आकाश इत्यादि कैसे पन्न हो सकते हैं ? क्योकि चेत्नसे ज़डकी उत्पत्ति होना ही सम्भव नही है । यदि ईश्वरको जडरूप स्वीकार किया जाय तो वह सहज त अनैश्वर्यवान ठहरता है, तथा उससे जोवरूप तन पदार्थकी उत्पत्ति भी नही है सकती। जडचेतन उभयरूप ईश्वर मानें तो फिर जडचेतनरूप जगत है उसका ईश्वर ऐसा दूसरा नाम कहकर सतोष नानने जैसा होता है, और जगतका नाम ईश्वर रखकर सतोष मानना, इसकी अपेक्षा जगतको जगत कहना, यह विशेष योग्य है। कदाचित् परमाणु, आकाश आदिको नित्य माने और ईश्वर को कर्मादिका फल देनेवाला मानें तो भी यह वात सिद्ध प्रतीत नही होती। इस विचारपर 'षडदर्शनसमुच्चय' मे अच्छे प्रमाण दिये हैं। ३ प्र०-मोक्ष क्या है ? उ.-जिस क्रोधादि अज्ञानभावमे, देहादिमे आत्माको प्रतिवध है, उससे सर्वथ निवत्ति होना, भक्ति होना, उसे ज्ञानियोंने मोक्षपद कहा है । उसका महज विचार करनेपर वह प्रमाणभूत लता है। ४ प्र०-मोक्ष मिलेगा या नहीं? यह निश्चितरूपसे इस देहमे ही जाना जा सका है? उ.-एक रस्सीके बहुतसे वधोसे हाथ बांध दिया गया हो, उनमेसे अनुक्रमसे यो ज्यो वध छोड़नेमे आते है, त्यो त्यो उस बंधके सम्बन्धकी निवृत्ति अनुभवमे आती है, और वह रस्सी बत
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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