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________________ २४ वॉ वर्ष २६१ १९० बबई, पौष सुदी ९, १९४७ चि०त्रिभोवनका लिखा पत्र कल मिला। आपको हमारे ऐसे व्यावहारिक कार्य - कथनसे भी विकल्प हुआ, इसके लिये सन्तोष हुआ है । आप भी सन्तोप ही रखिये । पूर्वापर असमाधिरूप हो उसे न करनेकी शिक्षा पहले भी दी है । और अव भी यही शिक्षा विशेष स्मरणमे रखने योग्य है । क्योकि ऐसा रहनेसे भविष्यमे धर्मप्राप्ति सुलभ होगी । जैसे आपको पूर्वापर असमाधि प्राप्त न हो वैसे आज्ञा होगी। चुनीलालका द्वेप क्षमा करने योग्य है । समय समयपर कुवरजीको पत्र लिखते रहिये, क्योकि वे पत्र लिखनेके लिये लिखते है । १९१ आयुष्मान भाई, वि० रायचन्दके यथायोग्य | बबई, पौष सुदी १०, सोम, १९४७ महाभाग्य जीवन्मुक्त, आपका कृपापत्र आज एक मिला। उसे पढकर परम सन्तोष हुआ । प्रश्नव्याकरणमे सत्यका माहात्म्य पढा है । मनन भी किया था। अभी हरिजनकी सगतिके अभावसे काल कठिनतासे बीतता है, हरिजनकी सगतिमे भी उसकी भक्ति करना बहुत प्रिय है । आप परमार्थके लिये जो परम आकाक्षा रखते हैं, वह ईश्वरेच्छा होगी तो किसी अपूर्वं रास्तेसे पूरी होगी । जिन्हे भ्रान्तिसे परमार्थका लक्ष मिलना दुर्लभ हो गया है, ऐसे भारतक्षेत्रवासी मनुष्योपर वह परमकृपालु परमकृपा करेगा, परन्तु अभी कुछ समय तक उसकी इच्छा हो, ऐसा मालूम नही होता । १९२ वंबई, पोष सुदी १४, शुक्र, १९४७ आज आपका एक पत्र मिला । 1 आपको किसी भी प्रकारसे पूर्वापर धर्मप्राप्ति असुलभ हो इसलिये कुछ भी न करनेके लिये आज्ञा दी थी, तथा अन्तिम पत्र मे सूचित किया था कि अभी इस विषयमे कोई व्यवस्था न करें । यदि जरूरत पड़ेगी तो तत्सम्बन्धी कुछ करनेके लिये इस तरह लिखूंगा कि जिससे आपको पूर्वापर असमाधि न हो । यह वाक्य यथायोग्य समझमे आया होगा । तथापि कुछ भक्तिदशानुयोगसे ऐसा किया मालूम होता है । कदाचित् आपने इतना भी न किया होता तो यहाँ आनन्द ही था । प्रायः ऐसे प्रसगमे भी दूसरे प्राणीको दुखी करनेका न होता हो तो आनन्द हो रहता है । यह वृत्ति मोक्षाभिलापीके लिये तो वहुत उपयोगी है, आत्मसाधनरूप है । सत्को सत्रूपसे कहनेकी जिसकी निरन्तर परम अभिलाषा थी ऐसे महाभाग्य कबीरका एक पद इस विपयमे स्मरण करने योग्य है । यहाँ एक उसकी मूर्द्धन्य कडी लिखी है" करना फकीरी क्या दिलगीरी, सदा मगन मन रहेना जी ।" मुमुक्षुओको इस वृत्तिको अधिकाधिक बढाना उचित है । परमार्थचिता होना यह एक अलग विषय है; व्यवहाराचताका वेदन अन्तरसे कम करना, यह मार्गप्राप्तिका एक साधन है । आपने इस बार मेरे प्रति जो कुछ किया है, वह एक अलग ही विषय है, तथापि विज्ञापन हे कि किसी भी प्रकारसे आपको असमाधिरूप जैसा मालूम हो तब इस विषय मे यहाँ लिख भेजना जिससे योग्य व्यवस्था करनेका यथासम्भव प्रयास होगा ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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