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________________ २६२ श्रीमद् राजचन्द्र अब इस विषयको इतनेसे यहाँ छोड देता हूँ। हमारी वृत्ति जो करना चाहती है, वह निष्कारण परमार्थ है, तत्सम्बन्धी आप वारवार जान सके है, तथापि कुछ समवाय कारणकी न्यूनताके कारण अभी तो वैसा कुछ अधिक नही किया जा सकता । इसलिये अनुरोध है कि हम अभी कोई परमार्थज्ञानी हैं अथवा समर्थ हैं ऐसी बात प्रसिद्ध न करें, क्योकि यह हमे वर्तमानमे प्रतिकूल जैसा है। __ आप जो समझे है वे मार्गको सिद्ध करनेके लिये निरन्तर सत्पुरुषके चरित्रका मनन करते रहे। प्रसगात् वह विषय हमे पूछे । सत्शास्त्र, सत्कथा और सद्वतका सेवन करें। वि० निमित्तमात्र १९३ बंबई, पौष वदी २, सोम, १९४७ सुज्ञ भाई, हमे सभी मुमुक्षुओका दासत्व प्रिय है। जिससे उन्होने जो जो विज्ञापन किया है, वह सब हमने पढा है। यथायोग्य अवसर प्राप्त होनेपर इस विषयमे उत्तर लिखा जा सकता है, तथा अभी आश्रम (जो स्थिति है वह स्थिति) छोड़ देनेकी आवश्यकता नही है। हमारे समागमकी जो आवश्यकता बतायी वह अवश्य हितकारी है। तथापि अभी उस दशाका योग आना शक्य नही है। यहा निरन्तर आनन्द है। वहाँ धर्मयोगकी वृद्धि करनेके लिये सभीसे विनती है । वि० रा० १९४ बबई, पौष, १९४७ जीवको मार्ग मिला नहीं है, इसका क्या कारण ? इसका वारवार विचार कर, योग्य लगे तब साथका पत्र पढें । अभी विशेष लिख सकनेकी या बतलानेकी दशा नहीं है, तो भी एक मात्र आपकी मनोवृत्ति कुछ दुखित होनेसे रुके इसलिये यथावसर जो कुछ योग्य लगा सो लिखा है। हमे लगता है कि मार्ग सरल है, परतु प्राप्तिका योग मिलना दुर्लभ है। सत्स्वरूपको अभेदभावसे और अनन्य भक्तिसे नमोनमः जो निरतर भाव-अप्रतिबद्धतासे विचरते है ऐसे ज्ञानोपुरुषके चरणारविंदके प्रति अचल प्रेम हुए बिना और सम्यकप्रतीति आये बिना सत्स्वरूपकी प्राप्ति नही होती, और आने पर अवश्य वह मुमुक्षु, जिसके चरणारविदको उसने सेवा की है, उसकी दशाको पाता है। सर्व ज्ञानियोने इस मार्गका सेवन किया है, सेवन करते हैं और सेवन करेंगे। ज्ञानप्राप्ति इससे हमे हुई थी, वर्तमानमे इसी मार्गसे होती है और अनागतकालमे भी ज्ञानप्राप्तिका यही मार्ग है.। सर्व शास्त्रोका बोध-लक्ष्य देखा जाये तो यही है । और जो कोई भी प्राणी छूटना चाहता है उसे अखड वृत्तिसे इसी मार्गका आराधन करना चाहिये। इस मार्गका आराधन किये बिना जीवने अनादि कालसे परिभ्रमण किया है। जब तक जीवको स्वच्छंदरूपी अधत्व है, तव तक इस मार्गका दर्शन नहीं होता। (अधत्व दूर होनेके लिये) जीवको इस मार्गका विचार करना चाहिये, दृढ मोक्षेच्छा करनी चाहिये, इस विचारमे अप्रमत्त रहना चाहिये, तो मार्गकी प्राप्ति होकर अंधत्व दूर होता है, यह नि शक माने । अनादिकालसे जीव उलटे मार्गपर चला है। यद्यपि उसने जप, तप, शास्त्राध्ययन इत्यादि अनंत वार किया है, तथापि जो कुछ भी अवश्य करने योग्य था, वह उसने किया नही है, जो हमने पहले ही बताया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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