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________________ ४०० श्रीमद राजचन्द्र ४९१ बबई, फागुन, १९५० तीर्थंकर वारवार नीचे कहा हुआ उपदेश करते थे___"हे जीवो | आप समझें, सम्यक्प्रकारसे समझे। मनुष्यभव मिलना बहुत दुर्लभ है, और चारो गतियोमे भय है, ऐसा जानें । अज्ञानसे सद्विवेक पाना दुर्लभ है, ऐसा समझें। सारा लोक एकात दु खसे जल रहा है, ऐसा जाने, और 'सब जीव' अपने अपने कर्मोसे विपर्यासताका अनुभव करते है, इसका विचार करे ।" [ सूयगडाग अध्ययन ७ वां, ११ ] जिसका सर्व दु खसे मुक्त होने होनेका अभिप्राय हुआ हो, वह पुरुष आत्माकी गवेषणा करे, और आत्माकी गवेषणा करनी हो, वह यम नियमादिक सर्व साधनोका आग्रह अप्रधान करके सत्सगकी गवेषणा करे, तथा उपासना करे । सत्सगको उपासना करनी हो वह ससारकी उपासना करनेके आत्मभावका सर्वथा त्याग करे । अपने सर्व अभिप्रायका त्याग करके, अपनी सर्व शक्तिसे उस सत्संगकी आज्ञाकी उपासना करे । तीर्थंकर ऐसा कहते है कि जो कोई उस आज्ञाको उपासना करता है, वह अवश्य सत्सगकी उपासना करता है। इस प्रकार जो सत्सगकी उपासना करता है, वह अवश्य आत्माकी उपासना करता है, और आत्माका उपासक सर्व दु खसे मुक्त होता है। [ द्वादशागीका अखड सूत्र ] पहले जो अभिप्राय प्रदर्शित किया है वह गाथा सूयगडागमे निम्नलिखित है - संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं दटुं, भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सक्कम्मणा विप्परियासुवेई ॥ सर्व प्रकारकी उपाधि, आधि, व्याधिसे मुक्तरूपसे रहते हो तो भी सत्सगमे रही हुई भक्ति दूर होना हमे दुष्कर प्रतीत होता है। सत्सगकी सर्वोत्तम अपूर्वता हमे अहोरात्र रहा करती है, तथापि उदययोग प्रारब्धसे ऐसा अतराय रहता है। प्राय किसी बातका खेद "हमारे" आत्मामे उत्पन्न नही होता, तथापि मत्सगके अतरायका खेद प्राय. अहोरात्र रहा करता है। 'सर्व भूमि, सर्व मनुष्य, सर्व काम, सर्व बातचीतादि प्रसग अपरिचित जैसे, एक्दम पराये उदासीन जैसे, अरमणीय, अमोहकर और रसरहित स्वभावत भासित होते है ।' मात्र ज्ञानी पुरुष मुमुक्षु पुरुष, अथवा मार्गानुसारी पुरुषका सत्सग परिचित, अपना, प्रीतिकर, सुदर, आकर्षक और रसस्वरूप भासित होता है। ऐसा होनेसे हमारा मन प्राय अप्रतिबद्धताका सेवन करते करते आप जैसे मागेंच्छावान पुरुषोमे प्रतिबद्धताको प्राप्त होता है। ४९२ बबई, फागुन, १९५० मुमुक्षुजनके परम हितैषी मुमुक्षु पुरुष श्री सोभाग, यहाँ समाधि है। उपाधियोगसे आप कुछ आत्मवार्ता नही लिख सकते हो, ऐसा मानते है । हमारे चित्तमे तो ऐसा आता है कि इस कालमे मुमुक्षुजीवको ससारकी प्रतिकूल दशाएँ प्राप्त होना, यह उसे ससारसे तरनेके समान है। अनतकालसे अभ्यस्त इस ससारका स्पष्ट विचार करनेका समय प्रतिकूल प्रसगमे विशेष होता है, यह बात निश्चय करने योग्य है। अभी कुछ सत्सगयोग मिलता है क्या? यह अथवा कोई “अपूर्व प्रश्न उद्भव होता है क्या ? यह लिखनेमे नही आता, सो लिखियेगा। आपको ऐसा एक साधारण प्रतिकूल प्रसग हुआ है, उसमे घबराना योग्य नहीं है । यदि इस प्रसगका समतासे वेदन किया जाये तो जीवके लिये निर्वाणके समीपका साधन है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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