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________________ ४९६ श्रीमद राजचन्द्र ६५७ बबई, मार्गशीर्ष सुदी १०, मंगल, १९५२ शुभेच्छा, विचार, ज्ञान इत्यादि सब भूमिकाओ मे सर्वसंगपरित्याग बलवान उपकारी है, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुषोने 'अनगारत्व' का निरूपण किया है । यद्यपि परमार्थसे सर्वसंगपरित्याग यथार्थ बोध होने पर प्राप्त होना योग्य है, यह जानते हुए भी यदि सत्संगमे नित्य निवास हो, तो वैसा समय प्राप्त होना योग्य है ऐसा जानकर, ज्ञानीपुरुषोने सामान्यतः बाह्य सर्वसंगपरित्यागका उपदेश दिया है, कि जिस निवृत्तिके योगसे शुभेच्छावान जीव सद्गुरु, सत्पुरुष और सत्शास्त्रकी यथायोग्य उपासना करके यथार्थं बोध प्राप्त करे । यही विनती । ६५८ बंबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२ तीनो पत्र मिले है । स्थभतीर्थ कव जाना सम्भव है ? वह लिख सकें तो लिखियेगा । दो अभिनिवेशोंके बाधक रहते होनेसे जीव 'मिथ्यात्व' का त्याग नही कर सकता । वे इस प्रकार है - 'लौकिक' और 'शास्त्रीय' । क्रमश. सत्समागमके योगसे जीव यदि उन अभिनिवेशोको छोड दे तो 'मिथ्यात्व' का त्याग होता है, ऐसा वारवार ज्ञानी पुरुषोने शास्त्रादि द्वारा उपदेश दिया है फिर भी जीव उन्हें छोडनेके प्रति उपेक्षित किसलिये होता है ? यह बात विचारणीय है । ६५९ बबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२ सर्वग्दु खका मूल सयोग (सबध) है, ऐसा ज्ञानी तीर्थंकरोने कहा है । समस्त ज्ञानीपुरुषोने ऐसा देखा है । वह सयोग मुख्यरूपसे दो प्रकारका कहा है- 'अंतरसम्बन्धी' और 'बाह्यसम्बन्धी' । अतर सयोग का विचार होनेके लिये आत्माको बाह्यसयोगका अपरिचय कर्तव्य है, जिस अपरिचयकी सपरमार्थ इच्छा ज्ञानी पुरुष भी की है । ६६० बबई, पौष सुदी ६, रवि, १९५२ "श्रद्धा ज्ञान लह्यां छे तोपण, जो नवि जाय पमायो (प्रमाद) रे, वंध्य तरु उपम ते पामे, संयम ठाण जो नायो रे; - गायो रे, गायो, भले वीर जगत्गुरु गायो ।' बबई, पौष सुदी ८, मगल, १९५२ ६६१ आज एक पत्र मिला है । आत्मार्थके सिवाय जिस जिस प्रकारसे जीवने शास्त्रकी मान्यता करके कृतार्थता मानी है, वह सर्व ‘शास्त्रीय अभिनिवेश' है। स्वच्छदता दूर नही हुई, और सत्समागमका योग प्राप्त हुआ है, उस योग भी स्वच्छदताके निर्वाहके लिये शास्त्र के किसी एक वचनको बहुवचन जैसा बताकर, मुख्य साधन जो सत्समागम है, उसके समान शास्त्रको कहता है अथवा उससे विशेष भार शास्त्रपर देता है, उस जीवको भी 'अप्रशस्त शास्त्रीय अभिनिवेश' है । आत्माको समझनेके लिये शास्त्र उपकारी है, ओर वह भी स्वच्छदरहित पुरुषको इतना ध्यान रखकर सत्शास्त्रका विचार किया जाये तो वह 'शास्त्रीय अभिनिवेश' गिनने योग्य नही है । सक्षेप लिखा है । १ भावार्थ-द्धा ओर ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर भी यदि सयमस्थान नही आया ओर प्रमादका नाश नही हुआ तो जीव वाझ वृक्षको उपमाको पाता है । जगतगुरु वीर प्रभुने केसा सुन्दर उपदेश दिया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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