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________________ २३७ २३ वो वर्ष बंबई, वैशाख वदी ४, गुरु, १९४६ *आज मने उछरग अनुपम, जन्मकृतार्थ जोग जणायो। वास्तव्य वस्तु, विवेक विवेचक-ते क्रम स्पष्ट सुमार्ग गणायो॥ --- (६) - बबई, वैशाख वदी ५, शुक्र, १९४६ इच्छारहित कोई प्राणी नही है । उसमे भी मनुष्य प्राणी विविध आशाओसे घिरा हुआ है। जब तक इच्छा-आशा अतृप्त है तब तक वह प्राणी अधोवृत्तिवत् है । इच्छाजयी प्राणी ऊर्ध्वगामीवत् है। बबई, जेठ सुदी ४, गुरु, १९४६ हे परिचयो । आपसे मै अनुरोध करता हूँ कि आप अपनेमे योग्य होनेकी इच्छा उत्पन्न करें। मैं उस इच्छाको पूर्ण करनेमे सहायक होऊंगा।" ___ आप मेरी अनुयायी हुईं, और उसमे जन्मातरके योगसे मुझे प्रधानपद मिलनेसे आप मेरी आज्ञाका अवलंबन करके व्यवहार करें यह उचित माना है। और मै भी आपके साथ उचितरूपसे व्यवहार करना चाहता हूँ, दूसरी तरह नही। यदि आप पहले जीवनस्थिति पूर्ण करे, तो धर्मार्थ के लिये मुझे चाहे, ऐसा करना उचित मानता हूँ, और यदि मैं करूँ तो धर्मपात्रके तौरपर मेरा स्मरण हो, ऐसा होना चाहिये। । दोनो धर्ममूत्ति होनेका प्रयत्न करें, बडे हर्षसे प्रयत्न करें। आपकी गतिसे मेरी गति श्रेष्ठ होगी, ऐसा अनुमान किया है-मतिमे । उसका लाभ आपको देना चाहता है, क्योकि आप बहुत ही निकटके सम्बन्धी हैं । वह लाभ आप लेना चाहती हो तो दूसरी धारामे कहे अनुसार जरूर करेंगी ऐसी आशा रखता हूँ। आप स्वच्छताको बहुत ही चाहे । वीतराग भक्तिको बहुत ही चाहे । मेरी भक्तिको समभावसे चाहे । आप जिस समय मेरी सगतिमे हो उस समय ऐसे रहे कि मुझे सभी प्रकारसे आनंद हो। विद्याभ्यासी होवें। मुझसे, विद्यायुक्त विनोदी सभाषण करें। मैं आपको युक्त बोध दूंगा। उससे आप रूपसपन्न, गुणसपन्न और ऋद्धि तथा बुद्धिसपन्न होगी। . फिर यह दशा देखकर मैं परम प्रसन्न होऊँगा। ... (८) बवई, जेठ सुदी ११, शुक्र, १९४६ सबेरेका छ से आठ तकका समय समाधियुक्त बीता था । अखाजीके विचार बहुत स्वस्थ चित्तसे पढे थे, मनन किये थे। (९) ___ बबई, जेठ सुदी १२, शनि, १९४६ कल रेवाशकरजी आनेवाले हैं, इसलिये तबसे नीचेके क्रमका पार्श्व प्रभु पालन कराये१. कार्यप्रवृत्ति। २ साधारण भाषण-सकारण | ३ दोनोके अतःकरणकी निर्मल प्रीति । *भावार्य-आज मुझे अनुपम आनन्द हुआ है, जन्मको कृतार्थताका योग प्रतीत हुज्ञा है। वस्तुकी ययार्यता. विवेक और विवेचनके क्रमका सुमार्ग स्पष्टतासे प्रतीत हुआ है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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